Wednesday, August 1, 2012

एक पाती - उस भाई के नाम जो पिता से बढ़कर है

श्रद्धेय भाई,
 सादर प्रणाम।
मैं जब पैदा हुई आप आठ साल के थे। आज जब आठ साल के बच्चों को देखती हूँ तो वे बहुत छोटे से लगते हैं, उंगली पकड़कर चलने लायक। पर आप मेरे पैदा होते ही बहुत बड़े बन गए थे। मैं जानती हूँ कि मैं माँ की गोद मे कम और आपकी गोद में ज़्यादा खेली हूँ। सिर्फ खेली ही नहीं, बल्कि पली हूँ। मुझे आपसे बहुत प्यार है, लेकिन आपके मुझसे प्यार की तुलना में यह कुछ भी नहीं। लोग कहते हैं कि मैं पितृविहीन थी, लेकिन आपने कभी ऐसा मुझे महसूस नहीं होने दिया। आज लोग कहते हैं कि मैं बहुत आत्मविश्वासी हूँ। मैं जानती हूँ कि क्यों हूँ। आपको याद नहीं होगा। माँ मुझे रोज़ स्कूल जाते हुए पैसे देतीं थीं। एक दिन मैंने ज़िद की कि मुझे भी अपने सभी फेंड्स की तरह पूरे महीने की पॉकेटमनी एकट्ठा चाहिए। आपने कहा - मिल जाएगी पर कैश नहीं चैक मिलेगा। वो चैक कैश कराने के लिये बैंक जाना उस दिन मुझे अत्याचार सा ही लगा था। काउंटर कितना ऊंचा था। उचक कर बड़ी मुश्किल से हाथ खिड़की तक पहुँचा था और क्लर्क को कुर्सी से खड़े होकर झुककर देखना पड़ा था कि यह किसका हाथ है। लेकिन पैसे हाथ में लेने पर ठीक वैसा ही लगा था जैसा किसी राजा को कोई किला फतह करके लगता है। इसी तरह की जाने कितनी घटनायें हैं। मेरा यह आत्मविश्वास आप ही की देन है। आपके होने से किसी काम को करते समय डर नहीं लगा। पता होता था कि आप संभाल लोगे, वो भी बिना डांटे। उस निश्चिंतता के लिए अब तरसती हूँ मैं। इसी निश्चिंतता ने मुझमें फैसले लेने की आदत डाल दी और एक दिन मैंने आपको अपना फैसला सुना दिया कि मुझे सन्यास लेना है। आपकी उस दिन की स्तब्धता मुझे आज भी याद है। मेरे इस फैसले का आपके मन के अलावा आपके जीवन पर क्या असर पड़ेगा, मैं नहीं जानती थी, पर आप जानते थे। मेरे जाने के बाद आपने जो-जो सहा है, उसका एहसास है मुझे। क्या-क्या नहीं कहा लोगों ने? खैर! तब मुझे विश्वास था कि एक दिन मेरे संतत्व के आगे यह सारी बातें गौण हो जाएंगी और आप को भी मुझ पर गर्व होगा। लेकिन वो भी नहीं हो पाया। बाद में जो हुआ उसके बाद भी मुझे पता था कि यदि मैं एक बार आपको सब बता दूँ तो आप अब भी मुझे संभाल लेंगे। आपने मेरे विश्वास पर विश्वास किया था और मेरा विश्वास टूट गया था। समझ ही नहीं आया कि किस मुँह से घर आकर आपको और परेशान करूँ और मैंने आपको कुछ नहीं बताया। लगने लगा था कि बची हुई ज़िंदगी यूं ही कट जाएगी पर, एक बार फिर प्रारब्ध ने उठाकर दूसरी राह पर रख दिया और मैंने विवाह कर लिया। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं कि आपसे पूछ नहीं पायी। इस विवाह को करने का फैसला इसलिए ले पायी कि विवाह के बाद भी मेरे आध्यात्मिक जीवन पर यहाँ किसी को कोई ऐतराज नहीं था। विवाह के बाद रिश्तों को दोबारा जीना शुरू किया और तब सबसे पहले आप ही थे जो याद आए। शादी के बाद आपको बहुत सारे सच पता चले। मुझे पता है उसके बाद आपने कितनी रातें जागकर और अकेले रोकर काटी हैं। एक बार आपने मुझसे कह भी दिया "गुड़िया, इतना सब हो गया? एक बार बता तो देती" यह कहते हुए आपकी आवाज़ भर्रा गयी थी और आप बहुत देर के लिए चुप हो गए थे। फोन पर भी मुझे आपकी हालत का एहसास हो रहा था। उस सच के उजागर होने पर फिर निशाना आप ही बने। लोगों ने कहा कि ‘आपके साथ जो हुआ उसमें परिवार की भी गलती थी।‘ ‘और कोई भाई होता तो सन्यास का फैसला लेने पर मार देता या बांध कर डाल देता।‘ ऐसे लोग आपके प्रेम की पराकाष्ठा को नहीं समझ सकते। उसे समझने के लिए किसी से उतना प्यार होना ज़रूरी है जितना आपको मुझ से है। आपने अपनी ज़िंदगी से बड़ा परिवार की प्रतिष्ठा को माना और मुझे ऐसी हर प्रतिष्ठा से बड़ा। इस बार बड़े बेटे के जन्मदिन पर आपकी तबीयत बहुत खराब थी। आप केक काटते समय उठकर दूसरे कमरे तक नहीं आ पाये। लेकिन अपनी उसी हालत में मेरी तबीयत खराब होने पर आप रात को तीन बजे चलकर अगली सुबह मेरे पास पहुँच गए। आपको अपना यह प्यार बड़ा नहीं लगता। मैं डेढ़ साल की थी, आपकी गोद में थी। आपके एक दोस्त ने मज़ाक में ही आपके कंधे पर हाथ मार दिया था। उस दोस्त के मैंने बाल पकड़ लिए थे, जिसे बड़ी मुश्किल से ही आप छुड़ा पाये थे। अबोध उम्र में की गयी उस हरकत में आपको इतना प्यार दिखा कि आप आज तक नहीं भूल पाये। यूं तो हर राखी पर मन भर कर रोयी हूँ पर आपको पता है मैंने आपको सबसे ज़्यादा याद कब किया है? पहली बार तब, जब आप इंदौर थे। बीच में चार दिन के लिए आए थे। चार दिन के बाद जब आप वापस गए तो आपके जाने के बाद मैं बहुत रोयी थी। दूसरी बार अब, जब दिल्ली से वापस आई हूँ। बल्कि, तब से तो आत्मग्लानी में जी रही हूँ। आप ने अपना पूरा जीवन आदर्श रूप में बिताया है। यहाँ तक कि अपनी साली में भी आपने मेरी ही छवि देखी और उसे सगी बहन सा ही स्नेह दिया। जब-जब किसी को भी आपकी ज़रूरत पड़ी उसके लिए मैंने आपको खड़े देखा है। आप बहुत मिलनसार नहीं हैं, पर आपकी साफ़गोई और सच्चाई ही वह कारण है जिससे लोग 30-30 साल से आपसे जुड़े हैं। पापा के न होने पर भी अकेले जिस तरह आपने परिवार को संभाला है वह अनुकरणीय है। बिना किसी मदद के आपने अपने दम पर फैक्ट्री खड़ी कर ली। यूं तो ऐसे हजारों मौके आए हैं पर निकट में मुझे आप पर तब बहुत गर्व हुआ था जब उस दिन अंजान शहर में भी वहाँ के माने-जाने लोग आपकी मदद में तत्पर दिखे। उनके व्यवहार में आपके प्रति आदर स्पष्ट झलक रहा था। आपने मेरे बिना कभी एक चॉकलेट तक नहीं खाई। यहाँ तक कि अपने हनीमून पर आप मुझे भी साथ ले जाना चाहते थे। आपको हमेशा लगता था कि मैं अकेले घूम आया तो मेरी छोटी बहन किसके साथ जाएगी। तब माँ को मुझे समझाना पड़ा था, भाई तुम्हें कहेगा साथ जाने को तो मना कर देना। और किसी की वो मानेगा नहीं। कहते हैं भले व्यक्ति के साथ किए अपराध को ईश्वर कभी क्षमा नहीं करता। इस पूरी सृष्टि में मैं यदि किसी की अपराधी हूँ तो वो आपकी हूँ। केवल और केवल आपकी। आज मुझे इसके सिवा और कोई दुख ही नहीं है। जीवन बहुत हद तक अनुकूल है और सभी का स्नेह भी पा रही हूँ। मेरी यह आत्मग्लानि किसी परिस्थिति वश नहीं है। सच तो यह है कि जीवन की हर खुशी पाने के बाद भी यह नहीं जाएगी। कई बार जीवन में ऐसा होता है कि हम केवल एक अवसर के लिए तरसते हैं, उस एक मौके के लिए, एक पल के लिए जिसमें हम अपनी भूल सुधार लें। लेकिन ऐसा होता नहीं। आज मैं उस भाव को जी रही हूँ। मैं जीवन भर पुण्य अर्जित करूँ तो भी वह आपके प्रति किए अपराध के बोझ को कम नहीं कर पाएगा। कहते हैं कि प्रायश्चित की अग्नि में बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा भी नहीं होगा। आप शायद मेरे अपराध को कुछ समय बाद फिर क्षमा कर दें, जैसे पहले सौ बार कर चुके हैं पर, भगवान नहीं करेंगे। ईश्वर के घर यदि न्याय है तो आपके हर आँसू और हर रतजगे की कीमत मुझे चुकानी ही होगी। ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि आप अपने जीवन में इतने संतुष्ट और प्रसन्न रहें कि भूल जाएँ आपकी एक बहन थी। इतना भूल जाएँ कि गुस्से में भी याद न आये। मेरी हर गलती, अपराध, भूल, पाप की सज़ा मुझसे ज़्यादा आपने भोगी है इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि अब मुझसे ऐसा कोई काम न हो जो आपके दुख का कारण बने। रक्षाबंधन पर मेरी सारी शुभकामनायें आपके नाम।

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