दशहरा, विजयदशमी या विजयपर्व, कुछ भी कहें पर मतलब तो एक ही है – धर्म की अधर्म पर विजय. किसी ने प्रश्न किया–क्या राम में कोई बुराई नहीं थी और क्या रावण में कोई अच्छाई नहीं थी? श्रीराम और रावण को व्यक्ति के रूप में देखें तो यह प्रश्न स्वाभाविक ही है. इसका निराकरण उन्हें दो प्रतीकों के रूप में देखने में ही है.
रावण अनेकान्न्य शक्तियों का स्वामी होने पर भी भयभीत था. ऋषियों के होम में उसे अपना अंत दिखता था और वह उन्हें भंग करने को उद्धत हो जाता. वह मदांध था, इसीलिए ज्ञानी होने पर भी उसे पराई स्त्री का अपहरण करने में संकोच नहीं हुआ. अधर्मी था इसीलिए उसे अपनी प्रजा का हित नहीं दिखा. प्रजापालक राजा अपनी हर इच्छा की बलि देकर भी प्रजा की संतान के समान रक्षा करता है. वहीँ राम प्रजापालक राजा हैं. परम् त्यागी हैं, मात-पितृ भक्त हैं, अनुजों के आदरणीय हैं, एक पत्नी व्रतधारी हैं तथा मित्र हितरक्षक हैं. ये सभी गुण उन्हें एक धर्म परायण पुरुष के रूप में स्थापित करते हैं.
राम उस शक्ति के प्रतीक हैं जो शान्ति एवं तुष्टि प्रदान करती है. वहीँ रावण उस शक्ति का प्रतीक है जो मदांध बना देती है. शक्ति के तीन प्रमुख केंद्र होते है– धन, सत्ता और ज्ञान. रावण ने अपनी साधना से तीनो को ही साधा है. वह तीनो प्रकार कि शक्तियों का स्वामी है. कुबेर उसके अधीन है, वह सोने की लंका का राजा और तीनों लोकों का स्वामी है. ज्ञान की भी कमी नहीं, प्रकाण्ड पंडित है, परम् शिव भक्त है. पर इन तीनो शक्तियों ने उसे मदांध बना दिया. संतुष्टि और अभय का स्थान अनंत पिपासा और भय ने ले लिया. अप्राप्य को पाने की पिपासा और प्राप्त को खो देने का भय. वह संसार के हर वैभव को अपने अधीन करना चाहता है. राम भी अदभुत शक्तियों के स्वामी हैं. उन्हें तो परमपिता विष्णु का अवतार ही कहा गया. किन्तु उनकी शक्ति ने उन्हें सहनशीलता, अभय एवं शान्ति दी. वे बलशाली हैं पर मदांध नहीं. शत्रु का नाश करने को क्रोध का आह्वान करते हैं पर धैर्यवान हैं. धर्म की रक्षा में तत्पर हैं. शक्ति जब दिशामय होती है तो राम होती है. दिशाहीन होने पर रावण हो जाती है. ज्वाला दीप जलाती है तो पूज्य होती है, घर जलाती है तो अस्वीकार्य हो जाती है और उसे जल डालकर शीतल किया जाता है. और तब उस स्थिति में जलाने वाला बुरा और बुझाने वाला भला ही होता है. रावण को दश दिशाओं में व्याप्त पाप के प्रतीक के रूप में भी देख सकते हैं. इसका एक कारण रामराज्य की महिमा का बखान है. अँधेरे के बाद का उजाला कुछ अधिक ही उजला लगता है ये सर्वमान्य तथ्य है. हर काल का समाज अनेक अवस्थाओं को जीता है. सृजनकाल, जो कि रचनाकाल होता है. उन्नतिकाल जब समाज स्थापित मूल्यों के चरम पर होता है. पतन, जब स्थापित मूल्यों का ह्रास हो रहा होता है और समाज दिशाहीन होता है. अंतिम, पुनःस्थापन, जब पूर्वस्थापित मूल्यों को आधुनिक आवश्यकता के अनुरूप ढालकर पुनःस्थापित किया जाता है. यह समय पूर्ण शान्ति का समय होता है. ठीक वैसी ही शान्ति जैसी किसी उत्पाति बालक को पिता द्वारा डांटने के बाद होती है. रामराज्य संभवतः पुनःस्थापना का ही काल था. राम द्वारा दश दिशाओं में व्याप्त व्यभिचार और पाप के अंत के बाद रामराज्य की स्थापना की गयी. रामराज्य यानि, अधर्म मुक्त राज्य, धर्म का राज्य.
राम को किसी भी रूप में देखें, उनकी जयकार के बिना कैसा दशहरा. तो जोर से बोलिए
“जय श्री राम ”
राम उस शक्ति के प्रतीक हैं जो शान्ति एवं तुष्टि प्रदान करती है. वहीँ रावण उस शक्ति का प्रतीक है जो मदांध बना देती है. शक्ति के तीन प्रमुख केंद्र होते है– धन, सत्ता और ज्ञान. रावण ने अपनी साधना से तीनो को ही साधा है. वह तीनो प्रकार कि शक्तियों का स्वामी है. कुबेर उसके अधीन है, वह सोने की लंका का राजा और तीनों लोकों का स्वामी है. ज्ञान की भी कमी नहीं, प्रकाण्ड पंडित है, परम् शिव भक्त है. पर इन तीनो शक्तियों ने उसे मदांध बना दिया. संतुष्टि और अभय का स्थान अनंत पिपासा और भय ने ले लिया. अप्राप्य को पाने की पिपासा और प्राप्त को खो देने का भय. वह संसार के हर वैभव को अपने अधीन करना चाहता है. राम भी अदभुत शक्तियों के स्वामी हैं. उन्हें तो परमपिता विष्णु का अवतार ही कहा गया. किन्तु उनकी शक्ति ने उन्हें सहनशीलता, अभय एवं शान्ति दी. वे बलशाली हैं पर मदांध नहीं. शत्रु का नाश करने को क्रोध का आह्वान करते हैं पर धैर्यवान हैं. धर्म की रक्षा में तत्पर हैं. शक्ति जब दिशामय होती है तो राम होती है. दिशाहीन होने पर रावण हो जाती है. ज्वाला दीप जलाती है तो पूज्य होती है, घर जलाती है तो अस्वीकार्य हो जाती है और उसे जल डालकर शीतल किया जाता है. और तब उस स्थिति में जलाने वाला बुरा और बुझाने वाला भला ही होता है. रावण को दश दिशाओं में व्याप्त पाप के प्रतीक के रूप में भी देख सकते हैं. इसका एक कारण रामराज्य की महिमा का बखान है. अँधेरे के बाद का उजाला कुछ अधिक ही उजला लगता है ये सर्वमान्य तथ्य है. हर काल का समाज अनेक अवस्थाओं को जीता है. सृजनकाल, जो कि रचनाकाल होता है. उन्नतिकाल जब समाज स्थापित मूल्यों के चरम पर होता है. पतन, जब स्थापित मूल्यों का ह्रास हो रहा होता है और समाज दिशाहीन होता है. अंतिम, पुनःस्थापन, जब पूर्वस्थापित मूल्यों को आधुनिक आवश्यकता के अनुरूप ढालकर पुनःस्थापित किया जाता है. यह समय पूर्ण शान्ति का समय होता है. ठीक वैसी ही शान्ति जैसी किसी उत्पाति बालक को पिता द्वारा डांटने के बाद होती है. रामराज्य संभवतः पुनःस्थापना का ही काल था. राम द्वारा दश दिशाओं में व्याप्त व्यभिचार और पाप के अंत के बाद रामराज्य की स्थापना की गयी. रामराज्य यानि, अधर्म मुक्त राज्य, धर्म का राज्य.
राम को किसी भी रूप में देखें, उनकी जयकार के बिना कैसा दशहरा. तो जोर से बोलिए
“जय श्री राम ”
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