छोटी थी तो अक्सर सोचती थी कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? वे तो सर्वशक्तिमान हैं, उपर से ही सब कुछ ठीक क्यों नहीं कर देते? और अवतार लेने के बाद इतनी प्रतीक्षा क्यों करते हैं? तुरंत पापी का संहार क्यों नहीं कर देते? उस समय बड़े जैसे-तैसे समझाकर टाल देते...कभी संतुष्ट करने लायक उत्तर नहीं मिला...मन में प्रश्न बना रहा और उत्तर समय ने दिया...गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- यदा-यदा ही धर्मस्य....सृजाम्यहम! अर्थात जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होगी तब-तब परमात्मा अवतार लेंगे...इस बात को व्यापक रूप में समझने की आवश्यकता है...ईश्वर ने दिन ही नहीं बनाया, रात भी बनायीं...उजाले के साथ अन्धकार बनाया...सत्य के साथ असत्य बनाया...ठीक इसी प्रकार धर्म के साथ अधर्म को भी जगह दी...ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार चलें तो अच्छे और बुरे दोनों को ही रहने की आज्ञा है पर संतुलन बना रहना चाहिये...अधर्म के पैदा होने पर ईश्वर अवतार नहीं लेते...ऐसा होता तो रावण या कंस का जन्म ही न होता...जब अधर्म, धर्म पर हावी होने लगता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं....जब अधर्म, धर्म का अस्तित्व मिटा रहा होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं...जब धर्म की हानि हो रही होती है तब ईश्वर अवतार लेते हैं....जब ईश्वर प्रदत्त संतुलन बिगड रहा होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं...यह तो हुआ अवतार लेने का कारण..अब दूसरा प्रश्न है कि अवतार लेने पर भी इंतनी लंबी प्रतीक्षा क्यों करवाते हैं? तुरंत ही वह कार्य क्यों नहीं करते जिसके लिये अवतार लिया? इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं...आपको भूख लगी....सामने ही व्यंजन से भरी थाली रखी है...आप उठे और आपने अपनी क्षुधा शांत कर ली...ऐसे में क्या उस भोजन की आपके लिये कोई कीमत होगी? वहीँ पेट भरने के लिये आपने बहुत प्रयास किया हो, लंबी प्रतीक्षा की हो तो वह भोजन न केवल आपको तृप्ति देगा बल्कि आपके लिये अतिशय मूल्यवान भी होगा...दूसरा उदाहरण देखिये...नल चल रहा है, आप अपने काम निपटा रहे हैं...कितना पानी फ़ालतू खर्च हो गया आपको उसका कोई हिसाब नहीं...एक दिन किसी कारणवश वह नल आपको पानी न दे पाये और आपको बाल्टी भर कर लानी पड़े तो उस पानी की अलग ही कीमत होती है...ईश्वर पापी का संहार करने को अवतार नहीं लेते बल्कि वह धर्म की स्थापना के लिये अवतार लेते हैं... जब जनता अधर्म से त्रस्त हो चुकी होगी, पापी के पाप इतने बढ़ चुके होंगे कि लोगों की उसके प्रति घृणा चरम पर होगी वही उचित समय होगा उसके संहार का...क्योंकि तब पाप और पापी की पहचान हो चुकी होगी...उससे दूरी की इच्छा प्रबल होगी...अधार्मिक आचरण से घृणा होगी और धर्म के प्रति आस्था होगी...धर्म की इच्छा होगी और धर्म के न होने पर क्या अनर्थ हो सकता है इसका अनुभव भी होगा...
ऐसा होगा तभी तो आप जोश में भरकर बोलेंगे - धर्म की स्थापना हो, अधर्म का नाश हो!
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