वह एक नन्हा सा शावक था। अपने माँ-बाप की जि़न्दादिल, एक नन्हीं सी शेरनी। बड़ा प्यारा सा केसरिया रंग, मदमस्त चाल और दो भोली सी आँखें। जहाँ शेर की आँखें देख अच्छे-अच्छों की रूह काँप जाती है, वहीं उसकी आँखों के भोलेपन में गज़ब का आर्कषण था। वह माँ के साथ दिन-भर खेलती। पंजे चलाकर उसका खेलना बहुत मनभावन था। हर हिलती वस्तु उसे आकर्षित करती। चाहे वह कोई उड़ता पतंगा हो या फिर ज़मीन पर इधर-उधर भागता कोई कीड़ा। वह सबके पीछे दौड़ती और अपनी माँ की नकल करते हुए उन नन्हे जीवों पर अपने शिकार के कौशल आज़माती। एक दिन वह ऐसे ही अपने इस प्रिय खेल में व्यस्त थी कि हवा में उड़ता एक सूखा पत्ता उसके सामने आकर गिरा। वह सब छोडक़र एकटक उसे देखने लगी। वह सरसराया तो उसने झट से अपना पंजा उस पर रख दिया। पंजा हटाकर उसने अपनी नज़र फिर उसपर गड़ा दी। हवा कुछ तेज़ चली तो पत्ता उडक़र कुछ दूर जा गिरा। वह उसके पीछे दौड़ी। पत्ता लगातार इधर-उधर उडऩे लगा। अब वह सब भूलकर उसके पीछे पड़ गयी। अपने इस शिकार के खेल में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वह अपने इलाके से कितनी दूर निकल आई है। पीछा करते हुए धीरे-धीरे वह जंगल से बाहर आ गई। जंगल की सीमा पर लकड़ी बीनने आए एक लडक़े की नज़र उस पर पड़ी। उसने उसे गोद में उठा लिया। वह छूटने के लिए पंजे मारने लगी पर लडक़ा ताकतवर था। उसने उसके चारों पंजे पकडक़र उसे उल्टा लटका लिया और सावधानी से अपने घर ले आया। घर लाकर लडक़े ने एक कटोरे में भरकर दूध उसके सामने रखा पर उसने नहीं पीया। अगली सुबह लडक़े ने बहुत बड़ा सा एक बाड़ा बनाकर उसे उसमें छोड़ दिया। उसके रंग से मेल खाता एक नाम भी रख दिया - केसर। केसर रह-रहकर बाड़े में चक्कर लगाती। उसे माँ की याद आ रही थी। यहाँ वे छोटे जानवर भी नहीं थे जिनके पीछे वह दौड़ा करती थी। उसका खेलना बंद हो गया था। उसे ऐसे देखकर लडक़े को लगा इसे इतनी बड़ी जगह देना बेकार है। उसका बाड़ा छोटा कर दिया गया। अब उसका यदा-कदा बाड़े के अंदर चक्कर लगाना भी बंद हो गया तो वह एक कोने में पड़ी रहती। यह देखकर उसके लिये एक पिंजरा मंगाकर उसे उसमें बंद कर दिया गया। अब वह हाथ-पैर भी मुश्किल से हिला पाती। वह दु:खी होकर रोती। उसे आँसू नहीं आते थे। वह इंसानों की तरह रोना नहीं जानती थी। उसका रोना घर के लोगों को दहाडऩा लगता। उसकी वह दहाड़ सुनकर वह सशंकित हो जाते। सोचते कि आज तो यह बच्ची है, पर इसे साधा न गया तो बड़ी होकर खूंखार हो जायेगी। लिहाज़ा उसके दहाडऩे पर उसे छड़ी से पीटा जाता। केसर के सुनहरी-पीले बालों की चमक खो गई थी। छड़ी पडऩे से जगह-जगह घाव हो गये थे। उसकी आँखों का भोलापन किसी को नहीं दिख रहा था। मार के डर से उसने अब दु:खी होकर चिल्लाना भी बंद कर दिया था। बाड़े से बाहर झाँकने पर उसे छड़ी दिखाकर डराया जाता। वह चुपचाप लेटी रहती। उसकी भोली सी चमकीली आँखें अब अक्सर बंद ही रहतीं। मक्खी उसकी नाक पर आकर बैठ जाती पर वह न उनसे खेलती और न ही उन्हें भगाती।
काश! उसकी माँ ने उसे शिकार की जगह इंसानों की भाषा सिखायी होती। उसे इंसानों की भाषा आती तो वह बोलकर बताती कि - ''मैं तो बस एक छोटी सी शेरनी हूँ। मैं तो बस खेल ही रही थी। मैं आपको कभी नुकसान नहीं पहुँचाऊँगी। मैं माँ की याद में रो रही थी, जिसे दहाड़ समझकर आप डर गये। मैं कटोरे में रखा दूध-रोटी नहीं खाती, मुझे शिकार करके खाना अच्छा लगता है।''पर अफसोस,कि केसर को इंसानों की भाषा बोलना कभी नहीं आयेगा। कुछ समय बाद वह समझने लगेगी पर बोलना कभी नहीं सीख पायेगी। उसका बोलना इंसान को दहाड़ ही लगेगा और उसकी हर दहाड़ पर उसे पीटा जायेगा। इसलिये वह सिर्फ सुनेगी और चुप रहेगी। हो सकता है आपको वह ज़िंदा दिखे पर मेरी नज़र में तो वह मर चुकी है।
यह कहानी पढक़र आपको केसर से सहानुभूति हो रही होगी, स्वाभाविक है, पर हम सभी को आत्ममंथन की आवश्यकता है। ज्य़ादा कुछ नहीं करना है, बस यह सोचिये कि पशु इंसान की भाषा समझ लेते हैं, पर धरती का सर्वश्रेष्ठ जीव होने के दंभ में जीने वाले हम मनुष्य पशुओं की भाषा नहीं समझ पाते, ऐसा क्यों?
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