मैंने हमेशा माना कि स्त्री-पुरुष मिलकर ही प्रकृति का संतुलन बनाते हैं...प्रकृति में हर वह वस्तु जिसमें जीवन है, नर-मादा में बँटी है... नर जीवन देता है और मादा उस जीवन को पोषित करती है....नर न हो तो जीवन का सृजन न हो और मादा न हो तो वह सृजन अस्तित्व में आते ही समाप्त हो जाए....पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, जलचर-नभचर, इंसान-जानवर लगभग सभी पर यह नियम लागू है...ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है मनुष्य, और जब मनुष्य जाति के विस्तार की बात आई तो नारी का जन्म हुआ...नारी ने मनुष्य जाति को विस्तार दिया....मैं नहीं कहती की नारी मनुष्य को जन्म देती है, अपितु वह उसे पोषण देती है, जीवित रखती है...जन्म का कोई औचित्य नहीं जीवितता के सामने....अंतरिक्ष में लाखों तारे नित्य जन्म लेते और मरते हैं....उनकी कोई गणना नहीं....अपने स्वयं के पैदा होते ही मर गए बच्चों तक को लोग नाम से याद नहीं रखते...पूज्य तो सूर्य है जो करोड़ों वर्षों से जीवित है और जीवन दाता है....प्रिय तो वे बालक हैं जिन्हें हम अपने सामने बढ़ते हुए देखते हैं....पपीते का पेड़ लगाया है आपने कभी? दस पेड़ पपीते के लगाएं तो एक में ही फल आता है....जिसमें फल आता है वह मादा होता है...जिसमें केवल फूल आते हैं वह नर कहलाता है....नर वृक्ष के बिना मादा में फल नहीं आता...परन्तु मादा वृक्ष के अभाव में नर वृक्ष भी बेकार है...ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रही कि वह हमें खाने को मीठे फल नहीं देता, बल्कि इसलिए कि फल से ही बीज का निर्माण होता है और इस प्रकार इस वृक्ष की जाति की रक्षा होती है...
किसी ने कहा कि प्रकृति की हर वस्तु ईश्वर ने मनुष्य को उपभोग के लिए दी है....ऐसे ही स्त्री भी है...मैं आहत तो हुई पर हैरान भी रह गयी....पहली बात तो यह कि मनुष्य प्रकृति का केवल एक अंग मात्र है...उसका रखवाला या मालिक नहीं....प्रकृति के लिए जैसे तितली है, फूल है, पेड़ हैं, ठीक वैसे ही मनुष्य भी है.....वह अपने किसी बच्चे में अंतर नहीं करती....यह दीगर बात है कि मनुष्य ने अपने बुद्धि बल से बाकी सभी अंगो पर दावेदारी कर दी है....यदि फल केवल मनुष्य के लिए होते तो बन्दर, हाथी, पक्षी, कीड़े उन पर आश्रित न होते....उनके लिए प्रकृति कोई और व्यवस्था करती...यदि अनाज केवल मनुष्य के लिए होता तो चूहे, चिड़ियाँ उस पर आश्रित न होते.....यदि पशुओं का मांस केवल मनुष्य के लिए होता तो शेर, भेड़िये, सियार, चील, कौवे आदि जैसे मांसाहारी जीव उनपर आश्रित न होते....प्रकृति के संसाधनों पर अधिकार के लिए केवल मनुष्य ही नहीं बाकी जीव भी आपस में लड़ते हैं...यहाँ तक कि बच्चे भी माँ के दूध के लिए आपस में लड़ते हैं...शावकों को देखिये, पिल्लों को देखिये....मनुष्य के जुड़वां बच्चों को देखिये...यह लड़ाई शाश्वत है....चली आ रही है दुनिया की शुरुआत से....मनुष्य इस लड़ाई में जीत जाता है अक्सर तो स्वयं को इनका मालिक मान बैठा है....यह उसका एक भ्रम मात्र है...इससे अधिक कुछ नहीं....मनुष्यों में पुरुष शारीरिक बल में श्रेष्ठ है तो यहाँ भी उसने अपना यह भ्रम बनाये रखा है....वह यह भूल गया कि जैसे पुरुष का स्थूल शरीर सशक्त है वैसे ही स्त्री का मनस शरीर सशक्त है....जीजिविषा के लिए जितना आवश्यक स्थूल शरीर है, उससे कहीं अधिक महत्त्व मन का है.....पुरुष में उतना धैर्य नहीं जितना स्त्री में होता है....सहनशीलता में भी स्त्री पुरुष से श्रेष्ठ है...पर यह किसी के लिए घमंड का कारण नहीं होना चाहिए...यह प्रकृति की व्यवस्था है संतुलन बनाये रखने के लिए....प्रकृति ने पुरुष को सृजन क्षमता दी है तो स्त्री को उसे पालने की शक्ति और धैर्य दिया है....पुरुष और स्त्री दोनों में से कोई एक न हो तो जाति का अंत हो जाए....मेरे इस दर्शन में जितना महत्त्व स्त्री का है उतना ही पुरुष का भी है....यही कारण रहा कि मैं कभी न तो स्वयं स्त्रीवादी हो पायी और न ही अतिवादी महिलाओं के विचार से सहमत हो पायी...परन्तु आज समझती हूँ उनका दर्द....वे पुरुषों की इस मानसिकता से लड़ते-लड़ते ही अतिवादी हो गयी हैं....आखिर मैंने भी तो एक बात के उत्तर में इतने तर्क जुटाए...अस्तिव्त की रक्षा परम धर्म है....यह जीवन रक्षा से बढ़कर है....पुरुष समाज को यह मानना होगा कि स्त्री भोग के लिए नहीं है...वह मानव जाति के विस्तार के लिए है....वह प्रकृति के संतुलन कारकों में से एक है...यदि मनुष्य श्रेष्ठ जाति है तो वह उस जाति का एक अभिन्न अंग है....यदि नारी केवल भोग के लिए होती तो प्रकृति उसे जीवनदायिनी शक्ति नहीं देती....वह माँ न होती....
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