आज उसके झुर्री वाले हाथ तेज़ी से चल रहे हैं। मिट्टी से सने हाथों से वो एक के बाद एक नन्हें-नन्हें दीये बनाता जा रहा है। उसकी दस साल की लड़की और आठ साल का लड़का बड़ी तल्लीनता से उसे काम करता देख रहे हैं। घरवाली दीयों को सुखाकर रंग रही है। दोनों लोग एक लय में काम कर रहे हैं। दीवाली जो पास है। दीवाली ही तो एक ऐसा मौका है जब मिट्टी भी मोल बिकती है। इसी माटी के बदले वो बच्चों के लिए कपड़े और मिठाई लाएगा। बच्चे भी यह जानते हैं, तभी दौड़कर तसला भर-भरकर चिकनी मिट्टी लाकर दे रहे हैं। आज उसके हाथों में बिजली सी तेज़ी है। कल धनतेरस है। बाज़ार में खूब भीड़ होगी। वो भी अपने बनाये दीये बेचने जायेगा। उनकी बिक्री के पैसे से ढेर सा सौदा लेकर घर आयेगा। घर के लिए भी उसने कुछ दीये निकालकर अलग रख दिए हैं। कल जब तेल लाएगा तो अपना झोंपडा भी रोशन करेगा।
धनतेरस के दिन वो सुबह ही सुबह निकल पड़ा। जाते-जाते बच्चों ने अपनी फरमायशों की पूरी फेहरिस्त थमा दी। घरवाली की आँखों में भी नयी साड़ी की चाहना साफ़ दिख रही थी। उससे सबको इतनी आस है सोच कर, उसकी छाती चौड़ी हो गयी। बाज़ार की चहल-पहल और रौनक ही अलग थी। उसने भी अपनी दुकान सजा दी। समय सरकता जा रहा था। लोग आते और पूजा के लिये दो-चार दीये लेकर चले जाते। वो मन ही मन आस बनाये रहा और सोचता रहा कि क्या ये बड़े लोग दीवाली पर घर नहीं सजाते? मैं गरीब दस-बारह जलाऊंगा तो ये तो सौ-दो सौ जलाते होंगे। आखिर हुआ क्या है? बिक्री क्यों नहीं हो रही? हारकर उसने एक संभ्रांत सी दिखने वाली महिला को आवाज़ दी। “माँ जी, पके हुए बढ़िया दीये हैं, ले जाइये।” महिला ने कृपापूर्वक रूककर जवाब दिया – “नहीं भाई। कौन बत्ती बनाये, लगाये और फिर घूम–घूमकर दीया सजाये? बिजली की लड़ी ही ठीक है।“ यह सुनते ही उसे मानो करंट लगा। बच्चों के चेहरे, घरवाली की ऑंखें और तेल के इंतज़ार में घर पर रखे सूने दीये आँखों के आगे घूम गये। शाम हो गयी थी। अँधेरा छा रहा था। आसमान में भी, उसकी आँखों में भी।
ऐसी हो दीवाली जब आप प्रदूषणकारी मोमबत्ती और बिजली की लड़ियाँ छोड़कर मिट्टी के दीये जलाते हैं तो उन ढेर से दीपों के साथ ही दो दीप किसी की आँखों में भी जलते हैं। उनकी चमक के आगे हर रोशनी फीकी है। है ना?
bahut hi saamyik aur satya lekh hai sadhvi ji.. dhanyawaad shre karne ke liye...
ReplyDeletereally heart-touching........and very true.....
ReplyDeleteyatharth chitran kiya hai aapne ....
ReplyDeleteमिटटी के चराग कतारों में क्या खूब जला करते थे
मचलती सी लौ फ़ना होने तक रौशनी बिखेरती थी!!
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अबके "बिजली के बुलबुले' और लोग एक से हो गए हैं
चेहरे पर नकली हसी और रश्क लिए गले मिला करते हैं
आपका आभार सरोज जी,संजय जी,और अज्ञात मित्र.
ReplyDeleteएक बहुत अच्छा लेख...शायद यही फरक हैं आज के भारत और INDIA में .......और दोनों के बीच खाई लगातार बढती जा रही हैं.......जहा एक और मानवीयता हैं तो वही दूसरी तरफ भौतिकवाद......और यही एक दूसरे को एक दूसरे से अलग भी करता हैं.....पर सबसे बड़ी विडंबना यह है कि........लोग जैसे -२ तरक्की करते हुए आगे बढते है....वो भारत से बाहर निकल जाते हैं और INDIA की राह पकड़ लेते हैं.......बिजली की लड़ियो कि चमक में भूल जाते हैं कि कुछ दिन पहले वो भी दिए जला रहे थे......शायद कही खामी रह गयी हैं हमारी शिक्षा में......मानवीय मूल्यों में.......जिसका नतीजा संस्कृति को भुगतना पड़ रहा हैं.......
ReplyDeleteसही कहा, शिक्षा का ही दोष लगता है.
ReplyDeleteसच कहा आपने- उनकी चमक के आगे हर रोशनी फीकी है। है ना? बढि़या लिखा। जय हो।
ReplyDeletesadhvi ji.......fistly u accept my heart-felt admiration for such a scintillating,soul-raising note......we,the modern generation is becoming insensitive to the basic realities of our fellow indian population...who are jst trying to live day to day......especially the craftsmen.....lets take an initiative to light at least 31 earthen diyas diwali........we do it every diwali(both days)......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख है ... मन द्रवित हो गया ...
ReplyDeleteThanks so much Raju ji, Poonam ji and Indraniil ji.
ReplyDeleteBahut hi sahi varnan kiya hai aap ne. hamne tin din pahle hi khabar likhi hai " Andhere hai aouro ke ghar roshan karne wale". Dil me ek tis hai Chidarpita ji ki pata nahi es dev bhumi se garibi ka kalank kb mitega.
ReplyDeleteExcellent.
ReplyDeleteBeautifully narrated..
ReplyDeleteThanks so much Ajit ji, Ashok ji and Vivek ji.
ReplyDeleteENOUGHT TO OPEN EYS OF THE NEW GENERATION
ReplyDeleteTHANKS N HAPPY DIPAWALI
JALAO DIYE PER RAHE 'DHYAN ITNA
ANDHERA DHARA PER KAHE RAH NA JAYE
साध्वी जी,
ReplyDeleteआपका यह आलेख सचमुच दिल को छूने वाला है. पर, आपको सत्य, अपनी कथा के नायक के सम्मुख रखनी चाहिए थी कि बदलते समय के साथ आदमी को भी बदल जाना चाहिए. यदि आदमी नहीं बदलता है तो संस्कृति का अवमूल्यन होने लगता है और परम्पराएं ढहने लगती है और सभ्यता विलुप्ति के निकट आने लगती है. मुझे नहीं पता कि आप यदि ऐसा कुछ इसी कथा में रखती तो कैसे रखती पर मेरा तो यही कहना है. बताया जाए कि हम अपनी संस्कृति और इसकी परम्पराओं को समयानुकूल रखें और बिजली की लडियाँ लगा कर ही प्रस्सन्नता बनाये रखें. इसी में हमारी भलाई है अन्यथा पता चलेगा कि दीये जलाने के चक्कर में हम दिवाली मनाने से ही बिदकने लगे है. ऐसा कभी ना हो, ..इसीलिए आपको लिखा.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ--
कालिश्वर दास
अटलांटा, जोर्जिया
संयुक्त राज्य अमेरिका
उन ढेर से दीपों के साथ ही दो दीप किसी की आँखों में भी जलते हैं। उनकी चमक के आगे हर रोशनी फीकी है। है ना......??haan saadhvi.....aur ise padhakr meri aankhe nam....!!!
ReplyDeletewo diya hi kya jo dil ko roshan na kar sake
ReplyDeletewo parv hi kya jo bhukhe ko bhojan na de sake
wo bhakti kya jo bahri sajja se hoti ho
wo sant hi kya jismen karuna naho.
excellent chidarpita.
डी सी पांडे जी, राजीव जी, आलोक जी,कालिश्वर जी, बहुत-बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteJaishreekrishna Matey,
ReplyDeleteJis tarah se hum humare sanskrtik mulyon me parivartan karate ja rahe ha.Bahut kuchh dushit ho chuka ha.Diwali par aap dekhon firecracker par devi devatawon ki photo lagi rahati ha aur use hi anjane me hum lakhon ki tadat me jalate huye dekahte rahate ha.
Yah kritya to Afgaan me Talebaniyon ne kiya tha Buddha statue ko blast karake usase se bhi ghranit ha.
BAHUT HI GAHARI BAT KAHI GAI HE PAR DOUR BADAL GAYA HAI LOG APANE GHARO KO ROSHAN KARNE KE LIYE DUSARO KE GHAR JALA DETE HAI TO KAHA YE SOCHENGE KI HAMARI KOSHISHO SE DUSARO KE BHI GHAR ROSHAN HO
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