युद्ध भूमि है. एक लिये धर्मक्षेत्र है. दूसरे के लिये कुरुक्षेत्र है. शूरवीरों का समूह है. कोई तलवार भांज रहा है तो कोई प्रत्यंचा चढ़ा रहा है. धनुष की टंकार, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की टापे, रथों की गडगडाहट, महारथियों की हुंकार और शंखध्वनि. कण-कण युद्ध के स्वागत में तैयार है. ऐसे में वीर अर्जुन धर्मक्षेत्र का भ्रमण कर रहे हैं. उनका रथ हांक रहे हैं संसार को चलाने वाले नारायण. श्रीकृष्ण के सखा पार्थ, इस वातावरण से युद्ध को प्रेरित न होकर भावुक हो जाते हैं. यह कैसे हुआ? क्यों हुआ? धर्मराज का अनुज, धरती को कंपाने वाला योद्धा, श्रीकृष्ण का सखा अर्जुन धर्मविहीन आचरण कैसे कर सकता है? और इस आचरण पर श्रीकृष्ण क्रुद्ध न होकर रणभूमि में ही गीता का ज्ञान दे रहे हैं. कैसे समझें इसे, कैसे माने? इस घटना को दूसरी दृष्टि से देखना होगा. उस युद्धभूमि में सभी एक-दूसरे के सम्बन्धी हैं, मित्र हैं, पर वहाँ सब दो खेमों में बंट गये हैं. सामने केवल शत्रु नज़र आ रहा है. न तो धृतराष्ट्र को पांडवों में अनुज पुत्र दिखे और न धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन में अनुज दिखाई दिया. शूरवीरों में केवल और केवल अर्जुन है जिसे हर व्यक्ति में सम्बन्धी दिख रहा है. कोई उसके पितामह, कोई भ्राता तो कोई सखा है. वही है जो किसी चेहरे में शत्रु नहीं देख पा रहा. उस भीड़ में वे चेहरे भी हैं जिन्होंने उसे, उसकी माँ को, उसके भाइयों को वन में भटकने पर मजबूर किया, जिन्होंने उसकी पत्नी का अपमान किया और जिन्होंने उन्हें मारने तक का षडयंत्र किया. पर महान है अर्जुन, जो इतना होने पर भी उसका स्नेह कम नहीं होता. उसे सब प्रिय हैं. इतने प्रिय हैं कि वो उन्हें मार नहीं सकता. इतने प्रिय हैं कि उन्हें खोकर उसे धरा का राज्य नहीं चाहिये. इतने प्रिय हैं कि उन्हें मारने की अपेक्षा अपने प्राण त्याग दे. ऐसी सम दृष्टि तो ईश्वर के सखा की ही हो सकती है. अक्सर मन में प्रश्न उठता था कि यदि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था तो कृष्ण ने उसे गीता का ज्ञान क्यों दिया? धर्मराज युधिष्ठिर को क्यों नहीं दिया? इन प्रश्नों का उत्तर दिया मेरे पूज्य गुरु जी ने. उन्होंने कहा कि गाय बछड़े को देख कर ही दूध देती है. इसमें गाय की कोई चालाकी नहीं है. उसके थन में दूध उतरेगा ही तब जब वो भूख से व्याकुल बछड़े को देखेगी. श्रीकृष्ण की ज्ञान गंगा भी बछड़े को देख कर, अर्जुन को देखकर बह निकली. अर्जुन में ईश्वर के प्रति समर्पण है. रथ हांकने का अर्थ यही है कि अर्जुन का जीवन रथ श्रीकृष्ण चलाते हैं. अर्जुन में करुणा है, प्रेम है. वह निश्छल है. वही है जो उस ज्ञान गंगा के लिये सुपात्र है....
आज गीता जयंती पर उस भक्त को प्रणाम जिसकी पात्रता से हमें ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति हुई और जगद्गुरु उन श्रीकृष्ण को वंदन जिन्होंने जीवन का मार्ग बताने वाली गीता को प्रकट किया. हरिःॐ
जिसने सिर झुकाया उसे आशीष मिला, जय हो ! ॐ नमो नारायणाय
ReplyDeleteaaj yadi har vyakti gayn ke sadmarg par chalne lage to duryodhan bachenge he nahee par par do do aakhne hote hue bhee aaj ka manav andha he esa kyo samajh se pare hai..
ReplyDeleteParth avam parthsarthi dono ko parnam jinhone is paviter dhara per karamyog ka divay sandesh diya. Ram te adhik ram ker dasa so He Parth tumhari abodh jigyasa ko shat shat vandan
ReplyDeleteगीता का ज्ञान अर्जुन को कभी मिली ही नहीं. गीता की रचना महाभारत की घटना के सैकडों सालों के बाद हुई है सो विद्वान ऋषियों (गणेश) की दैविक पंक्तियों को हमने और आपने जाना, अर्जुन को ज्ञान, संजय की दिव्यदृष्टि और युद्ध के मैदान में भगवान कृष्ण का... महारूप-दर्शन आदि हिंदू अधिमान्यताओं की सुखद स्थापना हेतु ही किया गया था. जैसा कि दुर्गा-सप्तसती में एक जगह भगवती बताती है कि: नित्येव सा मूर्तिस्तन्या तत्त जगत..(माफ़ करें ..कुछ भूल रहा हूँ) पर, मतलब याद है 'कि जगत में देवता के प्रति प्रेम उत्पन्न हो इसीकारण से मेरे इस विलक्षण रूप को जानो और पूजा करो..' ठीक वही बात गीता के प्रकरण में भी है. वह एतिहासिक प्रकरण अंध-युग से हिंदुओं की प्राकृतिक सनातन धर्म को सुरक्षित बचा निकालने की कवायद थी. अब वो समय गुजर चुका है और अब हमारा परम दायित्व है कि भय-भ्रम-भ्रान्ति से निकल कर सनातन धर्म को वर्तमान की वैज्ञानिकता के मायने में सत्य साबित करें. जैसा कि ऋषियों ने किया, आज के तमाम सत्य-समागम करनेवालों को यही करना चाहिए.
ReplyDeleteकालिश्वर दास
krishan ko duryodhan me bhi anuj dikhta he aur apko mujhme .............................................................................................................................?
ReplyDeletekya hua facebook se aapne maidan chhod diya. gita kahti he --- na denyam , na palaynam.
ReplyDelete09893776444 call me
Bahut utprerak vichar hai chidarpita Ji. Apke gurudeo ka kathan kitna sarthak hai "gay ke than me doodh tabhi utarta hai jab use pyasa Bachda Dikhai deta hai". Bina utkat abhilasha ke gyan darshan ho bhi kaise sakta hai.
ReplyDeleteSadhvi Chidarpita -"
ReplyDeleteप्रेम समर्पण के बिना अधूरा है। प्रेम पाने के दो ही तरीके हैं। किसी को अपना बना लें, जैसा राधारानी ने किया या फिर किसी के हो जायें, जैसा पार्वती ने किया।"
पुनः धृष्टता कर रहा हूँ- " राधा और पार्वती, प्रभू मुझे क्षमा करें - जहाँ तक माँ पार्वती के समर्पण का सम्बन्ध है तो जगत पिता स्वयम भी मैया के बिना अधूरे थे, परन्तु राधा रानी ने तो अपनी जिजिबिषा के खातिर माँ रुक्मणी कि सत्ता को चुनौती तक दे डाली, जिसकी परीक्षा महा ज्ञानी पंडित नारद नूनी ने लिया और राधा रानी मैया रुक्मणी के समर्पण और प्रेम के आगे हार गई"
व्यक्ति खुद अपने जीवन के बगिया का माली है, और बगिया का समय समय पर माली देखभाल नहीं करे तो बगिया बेजान हो जायेगी और उस बगिया का अस्तित्व वहीँ समाप्त हो जायेगा. व्यक्ति अब क्या करे , अपने जीवन रूपी बगिया कि देखभाल कर अपने अस्तित्व को कायम रखे या हाथ धर्मिता को ओढ़ कर अपने जीवन कि बगिया को ही समाप्त कर दे तो क्या प्रभू प्रशन्न होंगे ? सोंचना ही होगा.