Tuesday, March 27, 2012

Well Managed Mismanagement

खेती भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार रही है। हम लाख ‘मल्टीनेशनल डील’ कर लें, मॉल मे जाकर शॉपिंग कर लें, घूमने के लिए वर्ल्ड टूर पैकेज लें, मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देखें, पर यह आधार आज भी अपनी जगह से हिला नहीं है। अर्थव्यवस्था का ही नहीं, बल्कि कृषि भारत में सामाजिक व्यवस्था का भी आधार है। वर्ण व्यवस्था में भी इसे सर्वोत्तम बताया गया है। इतना महत्वपूर्ण होने पर कृषि पर जैसा ध्यान दिया जाना चाहिए था, वैसा दिया गया है या नहीं, इस बात पर मुझे संदेह है। नहीं दिया गया कहना ठीक नहीं होगा, क्योंकि हर साल के बजट में कृषि का अच्छा-खासा भाग होता है। पर ध्यान दिया गया है, यह कहने को भी मन गवाही नहीं देता। आज की स्थिति देखें तो भारत कुल उपयोग का 25% यूरिया का आयात विदेशों से करता है। यूरिया के प्रयोग से जहाँ कृषि भूमि की गुणवत्ता प्रभावित होती है, वहीं फसल भी गुणी नहीं रह जाती। यह भी स्थापित सत्य है, कि यूरिया, डीएपी और अन्य रसायनों के लगातार प्रयोग से भूमि बंजर हो जाती है। वह किसान जो कृषि पर निर्भर है, भूमि बंजर होने पर क्या करेगा, इसकी चिंता करने वाला कोई नहीं। अंत में होता ही यह है कि किसान बंजर हो चुकी अपनी भूमि को ईंट भट्टा स्वामी को बेच देता है और भूमि का मनचाहा दोहन करने के बाद ईंट भट्टा स्वामी उसे किसी न किसी व्यवसायी को बेच देता है। यही कारण है कि कृषि योग्य भूमि सिमटती जा रही है।
भारत में जैसा महत्व कृषि का है, ठीक वैसा ही कृषि में गोवंश का रहा है। यही कारण है कि यहाँ गाय को देव का दर्जा प्राप्त है, फिर भी गोहत्या पर प्रतिबंध होने के बावजूद रोज़ हजारों की संख्या में गाय-बैल कटते हैं। इसका एक ही कारण है कि किसान की गोवंश पर निर्भरता कम होती जा रही है। दूध देना बंद करते ही उसे पशु बोझ लगने लगते हैं। छोटी भूमि वाले किसानों के लिए मशीनों पर निर्भरता ठीक नहीं। किसी भी निर्णय में देश-काल का ध्यान रखा जाना चाहिए। मशीनें उन देशों के लिए ठीक हैं, जहाँ मानव संसाधन कम हैं। भारत में इसकी कमी नहीं, इसलिए यहाँ के लिए पारंपरिक खेती आज भी प्रासंगिक है। पारंपरिक खेती का न होना ही वह कारण है जिसकी वजह से ही देश में बेरोजगारों की संख्या प्रति वर्ष बढ़ रही है। गाँव का युवक होश संभालते ही बड़े शहर में एक नौकरी का सपना देखता है। यहाँ तक कि अभिभावक भी नहीं चाहते कि वह खेती करे। खेती करना आखिरी विकल्प के रूप में ही रखा जाता है। उन्हें इस मानसिकता के लिए दोष भी नहीं दिया जाना चाहिए। अभाव को वे सिर्फ देखते नहीं बल्कि जीते हैं। अपने बच्चों को हर व्यक्ति अभाव से दूर रखना चाहता है। गाँवो की स्थिति यदि देखें तो यह उस भारत का हिस्सा ही नहीं लगते जो भारत विश्व में नित नए कीर्तिमान गढ़ रहा है। यहाँ बिजली एक स्वप्न है, खाना आज भी लकड़ी जलाकर चूल्हे पर बनता है, खेतों मे डालने को खाद पाने को किसान डंडे खाते हैं और अस्पताल उनके अनुसार केवल बड़े लोग ही जाते हैं।
इन सब समस्याओं से एक साथ निजात पायी जा सकती थी यदि भारत की ग्रामीण परिस्थितियों का अध्ययन करने के बाद कोई नीति बनाई जाती। गाँव में गौशालाओं को प्रोत्साहन और रासायनिक खादों के प्रयोग को हतोत्साहित करना इसका बेहतर हल है। सरकार जितना पैसा डीएपी, यूरिया पर सब्सिडी देने में खर्च करती है उतमें में या उससे कम में ही गोबर गैस प्लांट बनाए जा सकते हैं। इससे गाँव में रहने वाले किसानों को गैस मिलेगी, खेतों के लिए खाद मिलेगी, वातावरण शुद्ध होगा और गायों की रक्षा भी होगी। देश का यूरिया के आयात पर होने वाला खर्च भी कम होगा।
इसके अलावा गांवो मे रहने वाले युवाओं को घर में ही रोजगार मिलेगा और उन्हें बड़े शहरों में मजदूरी करने नहीं जाना पड़ेगा। फिलहाल तो हम कितना, कहाँ और क्यों खर्च कर रहे हैं समझ ही नहीं आ रहा।
भारत गाँव में बसता है। यदि गाँव खत्म हो गए तो समझिए भारत खत्म हो गया। गाँव का आधार कृषि है और कृषि का गोवंश। इस समीकरण को समझने के लिए आपको अपने एसी कमरे से बाहर निकलकर गाँव जाना पड़ेगा। वैज्ञानिक अपनी खोज पूरी करने के लिए चाँद पर भी चले जाते हैं, आप भारत को समझने के लिए गाँव चलिये।

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