Saturday, June 10, 2017

वे मैदान में उतरे तो सब स्वच्छ

बात तब की है, जब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता थीं। शशिकला से उनका बहनापा, अपनापा चरम पर था। शशिकला के हर फैसले को जयललिता का फैसला माना जाता था। उनका हर आदेश, मुख्यमंत्री का आदेश माना जाता था

उस समय मोदी जी ने जयललिता को सावधान करते हुए उन्हें शशिकला से बचकर रहने को कहा। जयललिता ने यह सुनकर हर बात पर खुद दृष्टि रखी और मोदीजी की चेतावनी को सही पाया। उसके बाद से ही शशिकला के असीमित अधिकारों पर लगाम कसनी शुरू कर दी गयी। जयललिता व्यक्तिगत रूप से अंत तक मोदी जी का एहसान मानती रहीं

अब आप सोचिये कि कहाँ गुजरात और कहाँ तमिलनाडु! न भाषायी अनुकूलता न पास-पड़ोस का कोई मामला। मोदी जी का ख़ुफ़िया तंत्र किस हद का था कि उन्हें गुजरात में बैठकर जयललिता के घर तक की खबर थी। वे आज जहाँ हैं, यूँ ही नहीं हैं। 

अब आप यह भी सोचिये कि वही मोदी जी आज प्रधानमंत्री हैं। पूरे देश का ख़ुफ़िया तंत्र उनके अधीन है। अब ऐसा क्या होगा जो उन्हें पता नहीं होगा?
राहुल गाँधी या कांग्रेस के छोटे से फ्यूज़्ड दिमाग में  ऐसा कौन सा ढिंचक आईडिया आ जायेगा जिसे मोदी जी जैसा शातिर राजनीतिज्ञ समझ न सके और समझकर काट न सके? मैं तो आसानी से मान पा रही हूँ कि मोदीजी को सब पता था। मध्यप्रदेश में क्या पक रहा है, उत्तरप्रदेश में क्या चल रहा है, सब पर पैनी दृष्टि है उनकी। बस उनकी आदत में नहीं है किसी के फटे में टाँग अड़ाना। मुख्यमंत्री हैं किसलिए यदि प्रदेश भी उन्हें ही चलाना पड़े

बस यही सोचकर उन्होंने भगवान बनकर नैया पार लगाने का आईडिया ड्रॉप कर दिया। लेकिन पप्पू और पप्पुओं को यह होश रहना चाहिए कि हनुमान की पूंछ में आग लगाने का अर्थ यह नहीं है कि राम हार गए। वे मोदी हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव में सामने आ गए थे, आपने अपना हाल देख लिया। अब दोबारा ऐसा कुछ मत करो कि उन्हें फिर से मैदान में उतरना पड़े। क्योंकि जब वे मैदान में उतरते हैं तो फिर सब स्वच्छ करके ही रुकते हैं। 


Thursday, May 18, 2017

पत्रकार को पत्रकार रहने दो

दुनिया 'फेमस' यानि बड़े पत्रकारों के पीछे भागती है। उन्हें सम्मानित किया जाता है, वीआईपी ट्रीटमेंट दी जाती है। बड़े-बड़े लोग उन्हें मिलने का समय दे देते हैं और फिर वे उन बड़े लोगों के साथ की अपनी तस्वीरें फेसबुक और ट्विटर पर साझा करके और बड़ा दिखने की कोशिश करते हैं।
यह बड़ा होने और दिखने का क्रम कहीं नहीं रुकता। पत्रकारिता में बड़ा बनने के बाद उन्हें बड़ा लेखक बनना होता है। बड़ा पत्रकार और बड़ा लेखक बनने के बाद उन्हें बड़ा नेता बनना होता है। बड़ा घर, बड़ी गाड़ियां, बड़ा फ़ोन, हर बड़े शहर में बड़ा सा घर, गाँव में बड़ा सा फार्महाउस...... अनंत है ये क्रम।
हैरानी की बात है कि कोई अध्यापक मंत्री बन जाए तो लोग भूल जाते हैं, वकील मंत्री बन जाए तो भूल जाते हैं, पर कोई पत्रकार बड़ा नेता बन जाये तो कभी नहीं भूलते कि यह पत्रकार है। असल में पत्रकार लोगों को यह भूलने नहीं देता। भौकाल बनाये रखने को वह यदा-कदा अपने लेख अखबारों में छपने भेजता रहता है। लिखने का समय कम ही मिलता है तो किसी से भी लिखवा लेता है। और अख़बार की क्या मजाल जो उस जैसे बड़े पत्रकार का लेख न छापें।
जैसे-जैसे ये लोग बड़े होते जाते हैं लोगों का इन पर भरोसा बढ़ता जाता है।
अरे! इतना बड़ा घर, इतनी बड़ी गाडी, वो भला रिश्वत क्यों लेंगे? उन्हें भला किसी चीज़ की क्या कमी है जो वे ऐसा काम करेंगे?
तो महोदय, अपने चश्मे की धूल साफ़ कर लीजिए और हो सके तो बुद्धि की भी। बड़े घर के बड़े खर्चे होते हैं। बड़ी कार खरीदना जितना कठिन है उससे कहीं अधिक कठिन है उसे चलाना। एक स्क्रैच भी तीस हज़ार से कम में ठीक नहीं होता। अब बड़े हैं तो मेट्रो में या बस में तो चल नहीं सकते। खर्च चलाना मज़बूरी है। बड़ा घर, बड़ी कार, बड़ा फोन मेंटेन करने के लिए उन्हें बड़ा झुकना पड़ता है। बड़े समझौते करने पड़ते हैं। छोटी ख़बरों को उछालना पड़ता है। बड़ी ख़बरों को दबाना पड़ता है।
पत्रकारिता को जीवित कहीं न कहीं छोटे पत्रकार ही रखे हैं। वे एक सीमा तक ही दबते हैं। जितना वे कमा रहे हैं उतना वे कैसे भी और कहीं भी कमा लेंगे। थोड़ा कम भी कमाएं तो उनके आगे स्टेटस मेंटेन करने की कोई मज़बूरी नहीं। बाइक से न जाकर वे बस से कहीं चले जाएं तो कोई सवाल पूछने वाला नहीं।
उन्हें कहीं चीफ गेस्ट बनकर नहीं जाना होता जो वे महंगा डिज़ाइनर सूट खरीदें।
इन कथित बड़ों के पीछे भागने की आदत आपको छोड़नी होगी। आप ही इन्हें बड़ा बनाते हैं। आप अपने कामों के लिए इनके आगे-पीछे घूमते हैं। आपको लगता है कि इनके नेताओं से सम्बन्ध हैं। नेता इनकी बात मानते है क्योंकि उन्हें लगता है कि जनता पर इस पत्रकार का बहुत असर है। इस तरह ये लोग बीच का बंदर बनकर दोनों और से माला भी पहनते हैं और माल भी कूटते हैं। आप अपने ही पचास-सौ लोगों के साथ जाइये न नेता से काम करवाने। नेता संख्याबल से दबता है जो आपके पास है। आपको किसी दलाल पत्रकार की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अपने पर विश्वास रखें और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अधिक भ्रष्ट होने से रोकें।

Wednesday, June 25, 2014

प्रार्थना का मर्म

धर्म, पंथ, संप्रदाय चाहे कोई हो, पर एक बात सभी में समान है और वह है प्रार्थना। प्रार्थना क्या है और क्यों की जाती है? आइये जानते हैं प्रार्थना का मर्म।
प्रार्थना का अर्थ : बहुत से लोग पूजा और प्रार्थना में अंतर नहीं कर पाते। विधिपूर्वक, कर्मकांड के साथ अपने ईष्ट को प्रसन्न करना पूजा है, जबकि प्रार्थना एक मानसिक क्रिया है, जो बिना किसी कर्मकांड या विधि के कहीं भी, कभी भी की जा सकती है। अपने ईष्ट का स्मरण प्रार्थना है। उनकी अपार शक्ति का चिंतन प्रार्थना है।
प्रार्थना का महत्व : आपने अपने कमरे में लगे पंखे या बल्ब को तो देखा ही होगा। कैसे काम करते हैं ये उपकरण? जब तक बिजली का प्रवाह इनमें न हो, तब तक ये काम नहीं कर सकते। उस प्रवाह के लिए आप इन्हें तार से जोड़ते हैं। जैसे ही आप ऐसा करते हैं, ये उपकरण काम करने लगते हैं। इसके अलावा कुछ उपकरण बैटरी पर चलते हैं और आपको समय-समय पर इन्हें चार्ज करना पड़ता है। ऊर्जा का प्रवाह ही इन्हें चालित रखता है। इसी प्रकार प्राणी मात्र भी ऊर्जा से संचालित है। हम मानते हैं कि हम सब परमपिता परमेश्वर का अंश हैं। अर्थात हम उस अपरिमित ऊर्जा केंद्र से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। यह ऊर्जा हमें तभी प्राप्त होती है, जब हमारे तार उस स्रोत से जुड़े हों और प्रार्थना वह तार जोड़ने का ही काम करती है। जब हम अपने ईष्ट को याद करते हैं, तो उनसे जुड़ जाते हैं और हममें सकारात्मक ईश्वरीय ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। हमारे चारों ओर ऊर्जा का प्रवाह है। प्रार्थना इस व्याप्त ऊर्जा को केन्द्रित कर देती है। व्याप्त ऊर्जा और केन्द्रित ऊर्जा की शक्ति में बहुत अंतर होता है। वर्षा में मुंह खोलकर खड़े होने से प्यास नहीं बुझती। प्यास बुझाने के लिए जल को पात्र में या अंजुली में लेकर पीना पड़ता है। ठीक ऐसे ही व्याप्त ऊर्जा का लाभ लेने के लिए उसे केन्द्रित करना आवश्यक है।
प्रार्थना का प्रभाव : प्रार्थना का हमारे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो ईश्वर को परमशक्ति मानते हैं और अपने को उसका एक अंश। इस प्रकार हम उस शक्ति के आगे अपने अहम का पूर्णरूपेण त्याग कर कर देते हैं। प्रार्थना केवल हमारे अहं को ही नष्ट नहीं करती, बल्कि यह हममें आत्मविश्वास को भी बढ़ाती है। जिसे हम याद कर रहे हैं, जिसे हम समर्पित हैं, वह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं, बल्कि वह शक्ति है, जिसका हम अंश हैं, जब यह भाव प्रबल होता है, तो व्यक्ति अपने को अधिक शक्तिवान और विश्वास से भरा अनुभव करने लगता है। प्रार्थना धैर्य भी देती है। जब व्यक्ति कतिपय कारणों से घबरा जाता है, तो प्रार्थना उसमें धैर्य का संचार करती है। एक बालक जैसे माँ की गोद में आकर अपने सब दुख भूल जाता है, ऐसे ही मनुष्य को भी लगता है कि कोई है, जो उसकी हर स्थिति में रक्षा करेगा और यह विचार उसका धैर्य छूटने नहीं देता। प्रार्थना से चित्त भी शांत होता है। यह अधीरता को कम करके व्यक्ति को स्थिर भाव देती है।
कैसे करें प्रार्थना? : प्रार्थना कैसे करें, यह एक जटिल प्रश्न है, क्योंकि अनेक प्रकार की विधियों को देखकर व्यक्ति सोच में पड़ जाता है कि प्रार्थना कैसे करे। यह प्रश्न जितना जटिल है, इसका उत्तर उतना ही सरल है और वह है, जैसे जी चाहे वैसे करें। आपको जो स्रोत अच्छा लगे, उसका पाठ करें। संस्कृत जटिल लगती है, तो अपनी मातृभाषा में करें। बस एक बात का ध्यान रखें कि एकाग्रचित होकर करें। ईश्वर के जिस रूप में आपकी श्रद्धा हो उस रूप का चिंतन करें और अपने को समर्पित कर दें। एक और बात का ध्यान रखें, ‘भगवान नौकरी दिलवा दो, बेटी का विवाह करवा दो’ प्रार्थना नहीं है। यह याचना है। हम ईश्वर से याचना कर सकते हैं, पर उसे प्रार्थना मानकर नहीं करना चाहिए। प्रार्थना है परमपिता परमेश्वर को याद करना, उनकी स्तुति करना, उनका चिंतन करना।
प्रार्थना और नियम : यूं तो प्रार्थना जब की जाये, तब फल देती है, पर नियम का महत्व भी नकारा नहीं जा सकता। जो भी प्रार्थना करें, जितनी भी देर करें एक नियम बांधकर करें। एक दिन ढेर सा भोजन करके क्या हम एक माह बिना खाये रह सकते हैं? नहीं न? हम कितना भी भोजन क्यों न कर लें, वह क्षुधा एक दिन की ही बुझाएगा। ठीक वैसे ही एक दिन बहुत देर तक प्रार्थना कर लेना कोई विशेष फलदायी नहीं होता। नियमपूर्वक प्रार्थना आपकी शक्तियों को जागृत करेगी और आपके गुणों में निरंतरता आएगी।
निषेध कर्म : यदि आप कर्म से हीन हैं, तो प्रार्थना आपको लाभ नहीं पहुंचा सकती। आप दिन भर झूठ बोलते हैं, पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं, तो आप कितनी भी प्रार्थना कर लें आपको उसका लाभ नहीं मिलेगा। छलनी में कहीं बहती नदी का जल भरा जा सकता है? उसके लिए तो पात्र चाहिए। ठीक इसी प्रकार आपको अपने को सुपात्र बनाना होगा। पात्रता धारण करने पर ही आप प्रार्थना का पूरा फल प्राप्त कर पाएंगे। पात्रता देने का काम भी प्रार्थना ही करेगी। प्रार्थना आपको सहयोग करेगी और आपको अपने को उसकी मदद से हर दिन साधना होगा।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामयः
सर्वे भद्राणी पश्यंतु, मा कश्चिद दु:ख भाग्भवेद॥

Thursday, October 31, 2013

कौन था हिटलर?



माँ, तुम मुझे छोडकर क्यों चली गईं माँ...तुम्हें पता है मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ....अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊंगा माँ.... तूने बहुत दुख झेले हैं माँ.... मैं भी तुझे कोई सुख नहीं दे पाया... अब तू चैन से सो जा माँ....सुनसान कब्रिस्तान में एक ताज़ी कब्र के पास बैठकर फूट-फूटकर रोता हुआ यह 18 साल का लड़का कोई और नहीं, बल्कि हिटलर था। जी हाँ, वही एडल्फ हिटलर जो आज तक क्रूरता का पर्याय बना हुआ है। 

हिटलर का जन्म 20 अप्रैल 1889 को आस्ट्रिया के ब्रोनों नामक गाँव में मोवियन(मौर्य) वंश में हुआ था। हिटलर के पिता आर्यों की ज जाति के किसान थे। वे कस्टम विभाग में एक साधारण से कर्मचारी थे। 

हिटलर के जन्म के समय जर्मन साम्राज्य दो साम्राज्यों में बंट चुका था- आस्ट्रिया और हंगरी। एक अजीब सा संयोग है कि यह दशक क्रांतिकारियों के ही नाम था। लेनिन, मुसोलिनी और स्टालिन सभी इसी काल में हुए। 

हिटलर का बचपन बहुत कष्टमय था। उसकी माँ उसके पिता की तीसरी पत्नी थी। सगे-सौतेले सब मिलाकर हिटलर सात बहन-भाई थे। हिटलर के पिता रिटायर कर्मचारी थे लिहाजा परिवार के खर्च के हिसाब से आमदनी नहीं थी। उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था, वे फेफड़ों की गंभीर बीमारी से पीड़ित थे, सो हमेशा ही कुछ चिड़चिड़े रहते थे। माँ का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था। सभी बच्चों की देखभाल करते-करते और पिता के रूखे व्यवहार के कारण वह प्रायः बीमार और दुखी रहती थी। हिटलर अपनी माँ को बेहद चाहता था और उसके दुख का कारण पिता को समझता था। इसी वजह से वह अपने पिता से कुछ कटा-कटा सा रहता था। 

कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गयी। माँ बिलकुल टूट गईं। उन्हें कैंसर था, पर वे अपनी बीमारी हिटलर से छिपाती थीं। वह चाहती थीं कि हिटलर एक बड़ा अधिकारी बनकर अपने पिता की इच्छा को पूरा करे, पर हिटलर पर तो पेंटर बनने की धुन सवार थी। वह बचपन से ही बहुत अध्ययन-मनन करता था। उसके बहुत अधिक मित्र नहीं थे। जो थे, वे भी हिटलर की भाषण देने की आदत से परेशान रहते थे। कुछ समय बाद माँ भी मर गईं और हिटलर गाँव छोडकर वियना आ गया। यहाँ आकर उसने न सिर्फ शहर की जगमग देखी बल्कि एक कड़वा सच भी जाना। उसने देखा कि जर्मनी पर यहूदियों का कब्जा हो चुका है। हर बड़े पद पर वे मौजूद हैं और जर्मन जनता का शोषण कर रहे हैं। उसके अंदर जर्मन राष्ट्रवाद कूट-कूट कर भरा था। जर्मन खून के इस ठंडेपन पर उसका खून खौलता था। पर वह कुछ कर नहीं सकता था। वह अपनी भावनाओं को चित्रों में ढालता। उसका एक मित्र इन चित्रों को बेचकर धन लाता जिसे आधा-आधा बांटकर वे दोनों गुज़ारा करते। पर, यह व्यवस्था अधिक दिन नहीं चली क्योंकि हिटलर का विश्वास अपने उस मित्र पर से हट गया। हिटलर ने उसकी पिटाई की और वह भाग गया। 

इसी बीच हिटलर ने एक नाटक देखा जिसका एक पात्र भाषण कला में पारंगत है और अपने भाषण से सभी को अपने वशीभूत कर लेता है। इस नाटक का हिटलर पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिटलर का अध्ययन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। उसने यह समझ लिया था कि, मार्कस्वाद, समाजवाद और लोकतन्त्र राष्ट्रवाद को खत्म करने के हथकंडे भर हैं। अपनी आत्मकथा मीन केंफ में वह लिखता है कि, 'एक बात हमें कभी नहीं भूलनी चाहिए, बहुमत व्यक्ति का विकल्प नहीं हो सकता। बहुमत की वकालत करना मूर्खता ही नहीं राजनैतिक कायरता भी है। जिस प्रकार सौ मूर्ख मिलकर एक बुद्धिमान व्यक्ति की भूमिका नहीं निभा सकते उसी तरह सौ कायर मिलकर एक बहादुरी का फैसला नहीं ले सकते।'

हिटलर ने मार्क्सवादियों और यहूदियों के षड्यंत्र को समझ लिया था। गरीबों को लोकतंत्र और मार्कस्वाद के नाम पर भड़का कर यहूदी, जर्मन साम्राज्य को समाप्त करना चाहते थे, यह समझकर वह यहूदियों से नफरत करने लगा था जो हर दिन चरम की ओर बढ़ रही थी। मनन के बाद हिटलर इस नतीजे पर पहुंचा कि, बहादुर व्यक्तियों का देश में अभाव हो जाये तो वह देश नहीं बच सकता। केवल अपने लिए जीने वाले लोग देश के लिए कुर्बानी नहीं दे सकते। जब मानव अधिकार राज्य के अधिकार से बड़े हो जाएँ तो राज्य का नियंत्रण मनुष्यों से हट जाता है। प्रजातन्त्र यही करता है। प्रेस उसे ऐसा करने में सहयोग देती है।  स्वार्थों का खेल शुरू हो जाता है, राष्ट्रियता पीछे छूट जाती है। 

24 वर्ष की आयु तक हिटलर इस नतीजे पर पहुँच चुका था कि, लोकतन्त्र देशहित में नहीं है। देश की राष्ट्रवादी ताकतों को एकजुट कर इस ढांचे को बदलना होगा। मुख्य भूमिका राष्ट्रवादी फौज की होगी जो सत्ता पर अधिकार करके राष्ट्र विरोधी ताकतों का नामोनिशान मिटा देगी। हिटलर ने इसकी शुरुआत सेना में भर्ती परीक्षा में शामिल होने से की, पर वह रिजेक्ट हो गया। उसे बहुत धक्का लगा। 

जहां चाह, वहाँ राह। उसी समय आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हो गयी। युद्ध अवश्यंभावी हो गया और हिटलर को रिजर्व सेना में भर्ती कर लिया गया। जर्मनी हार गया। हिटलर को इससे सदमा लगा। वह दिन-रात हार के कारणों पर विचार करता रहता। कारण सैनिकों का गिरा मनोबल था। उनमें राष्ट्रवाद की कमी थी। अब हिटलर सैनिकों को भाषण देकर उनमें राष्ट्रप्रेम भरने लगा। उसका भाषण सुन सैनिकों में जोश आ जाता। उनकी आँखें चमकने लगतीं।

एक दिन हिटलर को जर्मन वर्कर्स पार्टी के मंच से बोलने का मौका मिला। वह ढाई घंटे बोला। हर किसी ने सांस रोककर उसका भाषण सुना। इसके बाद उसकी धूम मच गयी। उसे भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। वह कहीं भी रह लेता, कुछ भी खा लेता। पढ़ना और भाषण देना उसका जुनून बन चुका था। अब हिटलर के अनुयायियों की एक टीम बन चुकी थी। हिटलर ने पूर्व सैनिक, बेरोजगार युवाओं और अन्य राष्ट्रवादियों को जोड़कर सेना बनाई। इसका नाम था 'स्टोर्म एब्टीलिंग' अर्थात तूफानी पार्टी। इसी का चर्चित नाम नाजी पार्टी पड़ा। 

हिटलर से सरकार को अब खतरा लगने लगा था। उसकी सभाओं में गड़बड़ी फैलाने की योजना बनाई गयी। एक सभा में हिटलर के साथियों ने बीच में घुसकर गड़बड़ी फैलाने वाले ऐसे लोगों को ढूंढ-ढूंढकर मारा। हिटलर ने मंच से उन्हें हिदायतें दीं। बहुत खूनखराबा हुआ। विरोधी जान बचाकर भाग गए। हिटलर के समर्थक भी लहूलुहान हुए और उन्होने उसी हालत में फिर से बैठकर हिटलर का भाषण सुना। दो घंटे के इस भाषण में बार-बार तालियाँ बजीं। इससे सरकार और हिल गयी। 26 फरवरी 1924 को हिटलर और उसके साथियों पर गद्दारी कर आरोप लगा और मुक़द्दमा चला। पाँच वर्ष की सज़ा सुनाई गयी। जेल से बाहर आकर हिटलर ने बिखर चुकी नाजी पार्टी को फिर से खड़ा करने को कमर कस ली। यहूदियों के अत्याचार और जर्मन की शर्मनाक हार उसके दिमाग से एक पल को भी नहीं निकलती थी और उसे इन सबका एक ही हल दिखता था – किसी राष्ट्रवादी की तानाशाही। 

तेज़ गति से आगे बढ़ते हुए हिटलर 1932 में चांसलर बना। 30 जनवरी 1933 से अगस्त 1934 तक हिटलर ने नाजी क्रांति को अंजाम दिया। हिटलर ने अपनी सेना के बल पर एकतरफा चुनाव लड़ा। दूसरी पार्टियों के पोस्टर तक नहीं लगने दिये। चुनाव जीतने की बाद हिटलर ने मंच से घोषणा की – जर्मनी से मार्क्सवादियों को निकालकर बाहर फेंक दिया जायेगा। देश के साथ गद्दारी करने वालों के लिए इस देश में कोई जगह नहीं। मैं अपने कम्युनिस्ट दोस्तों को समझा देना चाहता हूँ कि वे नाज़ियों से टक्कर लेने के इरादे भूल जाएँ, नाज़ियों से टकराने का नतीजा केवल मौत होगा। इस देश में मेरी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलेगा।हिटलर ने जो कहा उसे किया भी। हजारों कम्युनिस्ट मारे गये। 14 जुलाई 1934 को सरकारी गजेट प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया कि,
1-      नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी ही अब राष्ट्र का एकमात्र राजनैतिक दल है, बाकी सभी दलों की मान्यता रद्द कर दी गयी है।
2-      जो भी कोई इस देश  में नए राजनैतिक दल का गठन करेगा उसे तीन वर्ष की कठोर या इससे भी अधिक सज़ा कानून के अनुसार दी जाएगी।

तूफानी सेना के सदस्यों की संख्या 25 लाख पार कर चुकी थी। वे हिटलर के एक इशारे पर जान देने को तैयार थे। विरोधी हिटलर की दहशत में थे। हिटलर ने 1934 तक जर्मनी पर अपना एकछत्र राज कायम कर लिया। हर ऊंचे पद पर नाज़ियों को नियुक्त किया। बर्सायल संधि के बावजूद सेना का विस्तार किया।  कारखानों में आधुनिक हथियार तैयार करवाए। खेती में उत्पादन पर ध्यान दिया। विकास के लिए उद्योगों को बढ़ावा दिया। हिटलर का आज भी वही उद्देश्य था जो तब था जब वह लाइब्रेरी में बैठकर विचार किया करता था – जर्मन राज्य को उसका खोया हुआ गौरव वापस दिलवाना। 

जर्मन की इस तरक्की से ब्रिटेन उससे जलने लगा। पर हिटलर टकराव से बचना चाहता था क्योंकि यह जर्मनी के निर्माण का समय था। हिटलर ने मुसोलिनी से मित्रता का हाथ बढ़ाने के लिए उसे जर्मनी आमंत्रित किया। मुसोलिनी आया और जर्मनी की उन्नति देखकर हैरान रह गया। दोनों में मैत्री संबंध स्थापित हो गए। अपनी कूटनीति से हिटलर ने आस्ट्रिया को जर्मनी में मिला दिया। वह पत्र जिस पर लिखा था, आस्ट्रिया जर्मन रीच का एक प्रांत है पढ़ते ही हिटलर इतना भावुक हो गया कि रो पड़ा। उसके साथी हैरान रह गए। वह अपनी माँ की कब्र पर भी गया, माँ तू चाहती थी न कि तेरा बेटा बड़ा आदमी बने, देख तेरा बेटा कितना बड़ा आदमी बन गया..... मैंने अपना और तेरा सपना पूरा कर लिया माँ... आस्ट्रिया जर्मनी में वापस आ गया.... यह खुशी किसके साथ बाँटू मैं माँ.....कहाँ है तू.....।
 
अब देश जीतकर जर्मनी की सीमा में मिलाना हिटलर का जुनून बन गया। युद्धों के कारण जर्मनी की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी थी। हिटलर का जुनून दुनिया को विश्व युद्ध की ओर धकेल रहा था। पर उसके सनकी स्वभाव के कारण कोई उसे यह सच कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अगला निशाना चेकोस्लोविया बना जहां जर्मन अल्पसंख्यक थे। उसने चेक सरकार को धमका कर उनके लिए अलग राज्य बनवा लिया। उसके बाद उसने पोलैंड पर हमला करने का मन बनाया। पोलैंड की दोस्ती ब्रिटेन और फ्रांस से थी । रूस भी इससे प्रसन्न नहीं था। अमेरिका भी इस अंदेशे से भड़क गया। हिटलर ने अपना निर्णय नहीं बदला और पोलैंड पर हमला कर दिया। ब्रिटेन और फ्रांस पोलैंड की तरफ से लड़े और दो देशों का यह युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध में बदल गया। तीन दिन के घमासान युद्ध के बाद जर्मनी  ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया, पर उसे 2 लाख, साठ हज़ार सैनिकों की बली देनी पड़ी। 

हिटलर की सबसे बड़ी शक्ति उसके लोगों का उसमें अंधविश्वास था जो अब कम होने लगा था। उसके युद्ध के जुनून से उसके जनरल इतना परेशान थे कि उसे जबरन सत्ता से हटाने का मन बना चुके थे, पर यह संभव नहीं हो पाया। पोलैंड के बाद हॉलैंड, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, फ्रांस... हिटलर की महत्वकांक्षा कहीं रुक ही नहीं रही थी। उसने रूस से संधि कर ली। लाखों सैनिकों का खून बहाकर उसने फ्रांस को भी जीत लिया। ब्रिटेन ने इस युद्ध में फ्रांस का साथ दिया था तो उसका भी बहुत नुकसान हुआ था। जर्मनी की बढ़ती शक्ति से अब रूस भी चिंतित हो गया। उसने अपनी सेना को चौकस कर दिया। इससे दोनों देशों का विश्वास डिगने लगा। संबंध खराब हो गए और अंततः जर्मनी ने रूस पर भी हमला बोल दिया।  जर्मन सेनाएँ तूफानी गति से रूस में घुस गईं। राजधानी मॉस्को केवल 200 किलोमीटर दूर रह गयी। 60 हज़ार सैनिकों को बंदी बना लिया गया। इतने सैनिको के खाने की भी व्यवस्था न हो सकी और वे एक-दूसरे को खाने लगे। जर्मनी लगातार आगे बढ़ रहा था। रूस ने अमेरिका से मदद मांगी। अमेरिका ने मना कर दिया। इस बीच जापान ने अमेरिका के एक नौसैनिक अड्डे पर हमला कर दिया जिसके जवाब में अमेरिका ने जापान के साथ ही साथ उसके मित्र देशों जर्मनी और इटली के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूसी नेताओं ने जनता से देश रक्षा की अपील की। जनता ने हथियार उठा लिए। भीषण युद्ध और नरसंहार हुआ। 50 लाख सैनिक और 60 लाख रूसी सैनिक मारे गए। हिटलर की भी पूरी सेना खत्म हो गयी। 12000 सैनिक रह गए तो जर्मनी की सेना ने हथियार डाले। 

अब रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने जर्मनी की कमर तोड़ना ठान लिया। रूसी सैनिक बदले की भावना से भरे थे। अपने लोगों के हुए भयानक नरसंहार को वे भूलते भी तो कैसे। वे पूरे जोश के साथ निरंतर जर्मनी की सीमा में आगे बढ़ रहे थे। जर्मन सेनाएँ उनका सामना न कर पायीं और पीछे हटने लगीं। इस हार से हिटलर हिल गया। 28 अप्रैल 1945 को उसे सूचना मिली कि मुसोलिनी और उसकी पत्नी को गोली से उड़ा दिया गया है। 29 अप्रैल को उसने ईवा से, जिसके साथ उसके 12 वर्षों से संबंध थे विधिपूर्वक विवाह किया और अपनी वसीयत तैयार की। देर से शादी करने को लेकर उसने कहा कि, बारह वर्ष के संबंध के बाद शादी करने को अन्यथा न लिया जाये। मैं राष्ट्र की उलझनों में इस प्रकार उलझा रहा कि परिवार जैसा कोई विचार ही मन में नहीं आया। अगले दिन उसने प्रतिदिन की भांति ही दिन शुरू किया। यूनिफ़ोर्म में सेल्यूट किया और कहा अलविदा मेरे प्यारे वतन, अब और साथ नहीं निभा सकता और 30 अप्रैल, दोपहर के 3 बजकर 30 मिनट पर उसने खुद को गोली मार ली। मरने के पहले उसने लिखा कि, शत्रुओं के हाथों पकड़े जाने के बाद अपमान झेलने से अच्छा है मैं अपने हाथों अपनी जान दे दूँ। इस अपमान से बचने के लिए मेरी पत्नी भी मेरे साथ ही अपने जीवन का अंत कर रही है। मरने के पहले वह बिलकुल शांत था और हमेशा की तरह ही हिदायतें और आदेश दे रहा था।

हिटलर दुनिया को धमकाकर रखने वाले अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों के लिए वही था, जो भगत सिंह अंग्रेजों के लिए थे। भारत के ये क्रांतिकारी अंग्रेजों के कानून के अनुसार देशद्रोही थे, आतंकवादी थे। होश संभालने के बाद से हिटलर ने एक ही सपना देखा, अपने देश के गौरव को वापस लाने का सपना। उससे छीनकर अलग किए राज्यों को वापस जर्मनी में मिलाने का सपना। जर्मन लोगों में आत्मविशास भरना। सत्ता प्राप्ति के बाद भी वह ऐशोआराम में नहीं डूबा। वह दिन-रात राज्य विस्तार और जर्मनी की शक्ति बढ़ाने के लिए ही सोचता और काम करता रहता। राज्य विस्तार का उद्देश्य जर्मनी को शक्तिशाली और चहुं ओर से सुरक्षित बनाना था। यदि वह पश्चिमी ताकतों के सामने घुटने टेक देता तो लंबे समय तक शासन करता पर वह कमजोर नहीं था। उसका उद्देश्य भोग नहीं था। क्रूर था वह केवल देश के दुश्मनों के लिए, जर्मन जनता का तो वह भगवान था। वह एक सच्चा राष्ट्रभक्त था। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि, राष्ट्रभक्त हो तो हिटलर जैसा। हर राष्ट्रभक्त को अपनी तुलना हिटलर से होने पर गर्व महसूस होना चाहिए। इस मौर्यवंशी आर्य के राष्ट्रप्रेम को मेरा प्रणाम।

Sunday, August 11, 2013

ज़हर से कतराते हैं वे, जो खुद ज़हरीले हैं

भाई हैं नाग देवता: आज नाग पंचमी है। घर-घर में कोयले से सांप उकेर कर उनकी पूजा की जाएगी, और नागपंचमी की कथा पढ़ी जाएगी। कथा याद है आपको? नहीं है, तो मैं याद करा देती हूँ। एक लड़की कोई भाई न होने से दुखी है और उसकी करुण पुकार पर पाताल लोक में बैठे नाग देवता भाई बनकर प्रकट होते हैं। उस दिन श्रवण मास,शुक्ल पक्षकीपंचमी थी और वे वादा करते हैं कि प्रतिवर्ष इसी दिन आएंगे। तब से सभी नागदेवता को भाई के रूप में पाने के लिए पूजन करने लगे। भाई कौन होता है? लड़की के लिए भाई रक्षक होता है।वह विवाह होने तक लड़की की रक्षा करता है। लड़की के विवाह के बाद पूरी धरती पर कोई है जो उसके पति से भी जवाब-तलब कर सकता है तो वो भाई है। समर्थ भाई जिस जीजा के पाँव छूता है, बहन के दुखी होने पर उसी जीजा को चेतावनी भी दे देता है, कि खबरदार मेरी बहन को कष्ट दिया तो। यह होता है भाई। जिस लड़की के भाई न हो वह अभागी होती है, दुखी होती है और ऐसी ही दुखिया की पुकार पर नागदेवता भाई के रूप में प्रकट हो गए।

नाग ही क्यों?: भाई के रूप में आखिर नाग देवता का ही पूजन क्यों होता है? शेर, हाथी जैसे अन्य शक्तिशाली जीवों का क्यों नहीं? कभी सोचा आपने? धरती पर रेंगने वाले जीव को पिटारे में बंद देखकर इसे कमज़ोर तो नहीं समझ लिया आपने? नाग परम शक्तिशाली होता है। जकड़कर मज़बूत से मज़बूत हड्डी को चकनाचूर कर सकता है। भागने में अच्छे अच्छों को पछाड़ देता है और ज़हर के बारे में कौन नहीं जानता। साधारणतया हर जीव सांप का सामना करने से डरता है।
धरती का आधार हैं नाग: यमुना के पानी को ज़हरीला बनाने वाले भयानक वासुकी को कृष्ण मारते नहीं, बल्कि जगह छोड़कर चले जाने को कहते हैं। शिव उसे अपने गले में धारण करते हैं और विष्णु कि शैय्या हैं शेषनाग। ऐसी भी कथा है कि शेषनाग ने धरती को धारण किया है। इस प्रतीक को समझें तो पता चलेगा कि वास्तव में सांप धरती पर जीवन के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सांप का ज़हर आज भी अनेक औषधियों में प्रयोग होता है। खेती को नुकसान पहुँचाने वाले जीवों का शत्रु है सांप और इसके अलावा इसकी फुंफकार वातावरण के लिए वही काम करती है जो नीम का धुआं। सांप धरती के नीचे रहते हैं और लगातार चलायमान रहते हैं, अपनी इस आदत के कारण वे धरती के तापमान को नियंत्रित रखते हैं। शास्त्रों में सांप को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है जो शायद सही ही होगा। आज के वैज्ञानिक इसके महत्त्व को पूरी तरह नहीं आंक पाए हैं और शायद इसीलिए इस पर हमले जारी हैं।
एक ही दिन पूजन क्यों?: किसी भी मंदिर में जाइये बंदरों, चूहों, मक्खियों की भरमार मिलेगी। कारण, वहां उन्हें मिलने वाले भोज्य पदार्थ। क्या आप इन्हीं सब के बीच इधर-उधर रेंगते सांपों की कल्पना कर सकते हैं? सिहर गए न। कितना भी उपयोगी या पूज्य क्यों न हो पर सांप के प्रति जो भय है वह ज्यों का त्यों ही रहता है। नागपंचमी पर सांप के लिए दूध रखने वाले भी मन ही मन प्रार्थना करते हैं कि, हे देवता मेरे जाने के बाद ही दूध पीने आना। इसके अतिरिक्त सांप इन्हीं दिनों बाहर आते हैं। बाहर आने पर अपने भय के चलते लोग उन्हें मारें न इसी कारण सावन माह का एक दिन उनके नाम कर दिया गया है।

कैसे हो पूजन?: पूजन तो जैसे आपको करना है वैसे करिए पर इस दिन अपने दुश्मनों की तुलना सांप से मत कीजिये। आज के दिन को लोग एक-दूसरे को छेड़ने के लिए ही दूध पिलाने का न्यौता देते हैं और इस न्यौते पर सामने वाला बुरी तरह तिलमिला भी जाता है। नाग पंचमी तो है ही इस बात के लिए कि आप सांप को अपना मित्र, अपना भाई मानें। इस दिन दुश्मनों को याद करके दूध पीने आने का न्यौता दिया तो नागपंचमी कहाँ सार्थक हुई? इस पर्व की आत्मा है नागों के प्रति प्रेम भाव। उसे अपने जीवन में उतारिये और उनकी शक्ति से संपन्न रहिये। नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।