दुनिया 'फेमस' यानि बड़े पत्रकारों के पीछे भागती है। उन्हें सम्मानित किया
जाता है, वीआईपी ट्रीटमेंट दी जाती है। बड़े-बड़े लोग उन्हें मिलने का समय दे
देते हैं और फिर वे उन बड़े लोगों के साथ की अपनी तस्वीरें फेसबुक और
ट्विटर पर साझा करके और बड़ा दिखने की कोशिश करते हैं।
यह बड़ा होने और दिखने का क्रम कहीं नहीं रुकता। पत्रकारिता में बड़ा बनने के बाद उन्हें बड़ा लेखक बनना होता है। बड़ा पत्रकार और बड़ा लेखक बनने के बाद उन्हें बड़ा नेता बनना होता है। बड़ा घर, बड़ी गाड़ियां, बड़ा फ़ोन, हर बड़े शहर में बड़ा सा घर, गाँव में बड़ा सा फार्महाउस...... अनंत है ये क्रम।
हैरानी की बात है कि कोई अध्यापक मंत्री बन जाए तो लोग भूल जाते हैं, वकील मंत्री बन जाए तो भूल जाते हैं, पर कोई पत्रकार बड़ा नेता बन जाये तो कभी नहीं भूलते कि यह पत्रकार है। असल में पत्रकार लोगों को यह भूलने नहीं देता। भौकाल बनाये रखने को वह यदा-कदा अपने लेख अखबारों में छपने भेजता रहता है। लिखने का समय कम ही मिलता है तो किसी से भी लिखवा लेता है। और अख़बार की क्या मजाल जो उस जैसे बड़े पत्रकार का लेख न छापें।
जैसे-जैसे ये लोग बड़े होते जाते हैं लोगों का इन पर भरोसा बढ़ता जाता है।
अरे! इतना बड़ा घर, इतनी बड़ी गाडी, वो भला रिश्वत क्यों लेंगे? उन्हें भला किसी चीज़ की क्या कमी है जो वे ऐसा काम करेंगे?
तो महोदय, अपने चश्मे की धूल साफ़ कर लीजिए और हो सके तो बुद्धि की भी। बड़े घर के बड़े खर्चे होते हैं। बड़ी कार खरीदना जितना कठिन है उससे कहीं अधिक कठिन है उसे चलाना। एक स्क्रैच भी तीस हज़ार से कम में ठीक नहीं होता। अब बड़े हैं तो मेट्रो में या बस में तो चल नहीं सकते। खर्च चलाना मज़बूरी है। बड़ा घर, बड़ी कार, बड़ा फोन मेंटेन करने के लिए उन्हें बड़ा झुकना पड़ता है। बड़े समझौते करने पड़ते हैं। छोटी ख़बरों को उछालना पड़ता है। बड़ी ख़बरों को दबाना पड़ता है।
पत्रकारिता को जीवित कहीं न कहीं छोटे पत्रकार ही रखे हैं। वे एक सीमा तक ही दबते हैं। जितना वे कमा रहे हैं उतना वे कैसे भी और कहीं भी कमा लेंगे। थोड़ा कम भी कमाएं तो उनके आगे स्टेटस मेंटेन करने की कोई मज़बूरी नहीं। बाइक से न जाकर वे बस से कहीं चले जाएं तो कोई सवाल पूछने वाला नहीं।
उन्हें कहीं चीफ गेस्ट बनकर नहीं जाना होता जो वे महंगा डिज़ाइनर सूट खरीदें।
इन कथित बड़ों के पीछे भागने की आदत आपको छोड़नी होगी। आप ही इन्हें बड़ा बनाते हैं। आप अपने कामों के लिए इनके आगे-पीछे घूमते हैं। आपको लगता है कि इनके नेताओं से सम्बन्ध हैं। नेता इनकी बात मानते है क्योंकि उन्हें लगता है कि जनता पर इस पत्रकार का बहुत असर है। इस तरह ये लोग बीच का बंदर बनकर दोनों और से माला भी पहनते हैं और माल भी कूटते हैं। आप अपने ही पचास-सौ लोगों के साथ जाइये न नेता से काम करवाने। नेता संख्याबल से दबता है जो आपके पास है। आपको किसी दलाल पत्रकार की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अपने पर विश्वास रखें और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अधिक भ्रष्ट होने से रोकें।
यह बड़ा होने और दिखने का क्रम कहीं नहीं रुकता। पत्रकारिता में बड़ा बनने के बाद उन्हें बड़ा लेखक बनना होता है। बड़ा पत्रकार और बड़ा लेखक बनने के बाद उन्हें बड़ा नेता बनना होता है। बड़ा घर, बड़ी गाड़ियां, बड़ा फ़ोन, हर बड़े शहर में बड़ा सा घर, गाँव में बड़ा सा फार्महाउस...... अनंत है ये क्रम।
हैरानी की बात है कि कोई अध्यापक मंत्री बन जाए तो लोग भूल जाते हैं, वकील मंत्री बन जाए तो भूल जाते हैं, पर कोई पत्रकार बड़ा नेता बन जाये तो कभी नहीं भूलते कि यह पत्रकार है। असल में पत्रकार लोगों को यह भूलने नहीं देता। भौकाल बनाये रखने को वह यदा-कदा अपने लेख अखबारों में छपने भेजता रहता है। लिखने का समय कम ही मिलता है तो किसी से भी लिखवा लेता है। और अख़बार की क्या मजाल जो उस जैसे बड़े पत्रकार का लेख न छापें।
जैसे-जैसे ये लोग बड़े होते जाते हैं लोगों का इन पर भरोसा बढ़ता जाता है।
अरे! इतना बड़ा घर, इतनी बड़ी गाडी, वो भला रिश्वत क्यों लेंगे? उन्हें भला किसी चीज़ की क्या कमी है जो वे ऐसा काम करेंगे?
तो महोदय, अपने चश्मे की धूल साफ़ कर लीजिए और हो सके तो बुद्धि की भी। बड़े घर के बड़े खर्चे होते हैं। बड़ी कार खरीदना जितना कठिन है उससे कहीं अधिक कठिन है उसे चलाना। एक स्क्रैच भी तीस हज़ार से कम में ठीक नहीं होता। अब बड़े हैं तो मेट्रो में या बस में तो चल नहीं सकते। खर्च चलाना मज़बूरी है। बड़ा घर, बड़ी कार, बड़ा फोन मेंटेन करने के लिए उन्हें बड़ा झुकना पड़ता है। बड़े समझौते करने पड़ते हैं। छोटी ख़बरों को उछालना पड़ता है। बड़ी ख़बरों को दबाना पड़ता है।
पत्रकारिता को जीवित कहीं न कहीं छोटे पत्रकार ही रखे हैं। वे एक सीमा तक ही दबते हैं। जितना वे कमा रहे हैं उतना वे कैसे भी और कहीं भी कमा लेंगे। थोड़ा कम भी कमाएं तो उनके आगे स्टेटस मेंटेन करने की कोई मज़बूरी नहीं। बाइक से न जाकर वे बस से कहीं चले जाएं तो कोई सवाल पूछने वाला नहीं।
उन्हें कहीं चीफ गेस्ट बनकर नहीं जाना होता जो वे महंगा डिज़ाइनर सूट खरीदें।
इन कथित बड़ों के पीछे भागने की आदत आपको छोड़नी होगी। आप ही इन्हें बड़ा बनाते हैं। आप अपने कामों के लिए इनके आगे-पीछे घूमते हैं। आपको लगता है कि इनके नेताओं से सम्बन्ध हैं। नेता इनकी बात मानते है क्योंकि उन्हें लगता है कि जनता पर इस पत्रकार का बहुत असर है। इस तरह ये लोग बीच का बंदर बनकर दोनों और से माला भी पहनते हैं और माल भी कूटते हैं। आप अपने ही पचास-सौ लोगों के साथ जाइये न नेता से काम करवाने। नेता संख्याबल से दबता है जो आपके पास है। आपको किसी दलाल पत्रकार की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अपने पर विश्वास रखें और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अधिक भ्रष्ट होने से रोकें।
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