ईश्वर कर्ता है। हर जड़-चेतन में वही है। वही सब घटनाओं का कारक है। हर आस्तिक अपना पूरा
जीवन इस विचार के साथ बिताने में और हर नास्तिक इस विचार का खंडन करने में बिता
देता है। इन दोनों ही श्रेणियों में बहुत कम लोग आते हैं। जो पूर्णतया आस्तिक
होगा वह अपने हर कर्म को ईश्वर का आदेश मानकर करेगा और जो पूरी तरह नास्तिक होगा
वह ईश्वर की सत्ता को नकारकर संसार को कर्म प्रधान मानेगा। अधिकांश लोग न तो पूरी
तरह आस्तिक होते हैं और न ही नास्तिक। संसार में बहुलता उन लोगो की है जो आलसी
हैं। वे अपने आलस्य को कभी ईश्वरवादिता का और कभी नास्तिकता का मुखौटा पहना देते
हैं। ‘कौन इतनी सुबह नहाये? हम ईश्वर में
विश्वास नहीं रखते इसलिए व्रत-पूजा, तीर्थ-वीर्थ आदि ढकोसलों से दूर ही रहते
हैं।‘ ज़्यादा हाथ-पैर मारने का कोई लाभ नहीं, होना वही है जो भगवान चाहेंगे।‘ इन बातों को बुद्धिजीवी स्वीकार नहीं कर पाता और कई बार
ईश्वर में विश्वास होते हुए भी दुविधा में पड़ जाता है। कर्म करे या ईश्वर के भरोसे
छोड़ दे? बड़े-बड़े पदों पर आसीन लोग भी अक्सर संतों से इस प्रकार के
सवाल पूछ बैठते हैं और उन्हें भी दुविधा में डाल देते हैं। क्या जवाब दें इस बात
का? कह दें, कर्म पर विश्वास करो तो ईश्वर में
निष्ठा जाती रहेगी और यदि कहा ईश्वर ही कर्ता है तो अच्छा-भला व्यक्ति भाग्यवादी
होकर पंगु बन जाएगा। इस सवाल का एक वाक्य में कोई जवाब हो ही नहीं सकता। मैं ईश्वर
में दृढ़ आस्था रखती हूँ, पर मैं कर्म में भी उतना ही विश्वास
रखती हूँ और ऐसा करते हुए मेरी निष्ठा में कोई कमी नहीं आती। ऐसा कैसे होता है, वही अनुभव आपके साथ बाँट रही हूँ। जब हम मानते हैं की सब
कुछ ईश्वर इच्छा से ही होता है, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसी
ईश्वर ने हमें मानव शरीर दिया है। मानव की तुलना अन्य जीवों से नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह विशिष्ट
है। वैज्ञानिकों ने मानव शरीर के अनेक अंग कृत्रिम रूप से तैयार कर लिए हैं, फिर भी वे मशीनी शरीर तैयार करने का दावा नहीं करते। एक
वैज्ञानिक का ही कथन था कि, यदि मानव शरीर के सभी अंगों के विकल्प
के रूप में मशीनें तैयार की जाएँ तो उन्हें लगाने के लिए सैंकड़ों एकड़ भूमि की
आवश्यकता होगी और वे मिलकर इतना शोर करेंगी की वहाँ खड़ा हो पाना असंभव होगा। हमारे
शरीर में यह सभी काम इतनी शांति से होते हैं कि हमें पता भी नहीं चलता। इतने सूक्ष्म हैं वे सभी अंग कि एक छोटे से शिशु के शरीर में भी समा जाते हैं। एक बात और, उस वैज्ञानिक ने अपनी उस कल्पना से मानव मस्तिष्क को बाहर
रखा था। दिमाग तो कोई समझ ही नहीं पाया आज तक, बनाना तो बहुत
दूर की बात है। तो इतना महत्वपूर्ण है इस मानव शरीर का स्वामी होना। ईश्वर ने हमें
मानव जन्म दिया, दो हाथ दिये, पैर दिये, इंद्रियाँ दीं, दिमाग दिया। आखिर किसलिए? कोई तो प्रयोजन
होगा। कोई तो कारण होगा। एक हाथ पर दूसरा हाथ रखकर बैठने के लिए तो हाथ-पैर नहीं
दिये होंगे। जैसे ईश्वर ने हमें यह गुण दिये हैं, वैसे ही उन गुणों
के अनुरूप कुछ काम भी दिये हैं। हमारा यह सोचना कि वह काम भी ईश्वर स्वयं ही करा
लेंगे नकारापन है, उससे अधिक कुछ नहीं। एक उदाहरण देखिये, एक कंपनी है। वहाँ एक मैनेजर है। उसने सभी अधिनास्थों को
काम बाँट रखे हैं। एक को गेट पर खड़ा किया है। एक को ऑफिस का काम सौंपा है, एक को फोन पर बैठाया है। सब अपना-अपना काम करते हैं और
मैनेजर सबको देखता है। जहां कोई काम ठीक से नहीं हो रहा होता वह अपनी राय देता है।
वह किसी की जगह जाकर काम नहीं करता। ऐसा ही ईश्वर की सत्ता में भी होता है। उनके द्वारा दिये
काम हमें स्वयं ही करने हैं। वह हमारा काम करने नहीं आएंगे। ईश्वर स्वयं भी मानव
अवतार लेते हैं तो अपनी ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग नहीं करते। राम भगवान विष्णु
के अवतार थे, यह हम सभी जानते हैं। यदि वह अपनी
ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग करते तो उन्हें क्या ज़रूरत थी कि, वे वानरों की सेना इकट्ठा करते, जंगलों में नंगे पाँव भटकते, रावण से इतना लंबा युद्ध लड़ते? अवतार लेकर एक तरह से उन्होने मनुष्य को कर्म का महत्व ही
बताया है। जो ईश्वर की सत्ता को नकारते हैं और अपने कर्म पर घमंड करते
हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि यदि यह शरीर ही नहीं होता तो वे किसी भी कर्म के कारक कैसे बनते। जो अपने
आलस्य को ईश्वर की आड़ में छिपाते हैं, उन्हें यह सोचना चाहिए कि, ईश्वर ने हमें यह शरीर किस प्रयोजन से दिया है। राम के अयोध्या लौटने की खुशी में दीवाली मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उनके जैसे आस्तिक हों, उनके जैसे कर्मशील हों।
साध्वी चिदर्पिता
No comments:
Post a Comment